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________________ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन १७३ शान्तरस स्थायी भाववाला होता है और इस की उत्पत्ति कवि ने काव्य के अन्तर्गत तप और योगि संपर्क आदि विभावों से बतायी है। तथा काम, क्रोध आदि अभावरुप अनुभावों होते हैं। धृति, मति आदि इसमें व्यभिचारी भाव होते हैं अर्थात् जिसका ‘शम' रुप स्थायी भाव है तथा जो मोक्ष का आपादक है। यह तत्वज्ञान, वैराग्यचित्त शुद्धि आदि विभावों के द्वारा उत्पन्न होता है। प्रस्तुत भगवान महावीर संबंधी काव्यों में शान्तरस की प्रधानता है। तथा काव्यों का अन्त भी शांतरस में होता है। भगवान महावीर के काव्य नायक धीर प्रशान्त महावीर हैं । वे मोक्षफल के दाता हैं । कवियों ने भगवान महावीर काव्यों में जन्म से लेकर निर्वाण तक के भावों के अनुकूल रसों का चित्रण खींचा है। तीर्थंकर का जन्म सम्पूर्ण प्राणी जगत के लिए मंगलमय होता है, इसीलिए उनके जन्म-प्रसंग पर मनुष्य ही नहीं, स्वर्ग के देव-देवियों इन्द्र एवं इन्द्राणी तक खुशी मनाते हैं। पशु-पक्षियों में आनन्द की लहर दौडने लगती हैं, संगीत की मधुर ध्वनि सुनाई देने लगती है, मयूर नाचने लगते हैं। कवि ने भगवान के जन्म से पूर्व वातावरण की शान्ति का सुंदर चित्रण काव्य में किया है - निर्मल अम्बर सुन्दर समीर, फैला बसन्त बन बागों में। मंगल ध्वनियाँ मनहर बाजे, पक्षी गाते सब रागों में। नक्षत्र सभी अनुकूल हुए, शुभ घड़ियों की आ गई घड़ी। उस क्षण की पूजा करने को, सिद्धियाँ खड़ी थी बड़ी बड़ी॥ *** कोई गायन वादन करती मनमोहक नृत्य दिखाती थी, पूछा करती थीं प्रश्न गूढ सुन्दर आख्यान सुनती थी, वे वन क्रीडा को ले जातीं कोई नीत महल सजाती थी, विक्रिया ऋद्धि से चमत्कार वे नाना भाँति दिखाती थी। २ *** वह शुभ दिन आया, मन हरषाया, प्रकृति छटा अति पावन थी। मृदु मंद सुगंधित अनिल प्रवाहित, शीतल प्रेम लुभावन थी। I air “वीरायण' : कवि मित्रजी, “जन्मज्योति", सर्ग-४, पृ.९५ "त्रिशलानन्दन महावीर" : कवि हजारीलाल, पृ.३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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