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________________ १३६ विवाह प्रथा : विवाह - व्यवस्था, प्राचीनकाल से लेकर आज तक मानवीय समाज व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग रही है । धार्मिक दृष्टि से वह स्वपत्नी या स्वपति सन्तोषव्रत की I व्यवस्था करता है । जिसका तात्पर्य है व्यक्ति को अपनी काम वासना को स्वपति या स्वपत्नी तक सीमित रखना चाहिए। मतलब यह है कि यदि ब्रह्मचर्य का पालन सम्भव न हो तो विवाह कर लेना चाहिए । विवाह विधि के सम्बन्ध में आचार्यो की क्या धारणा थी, इसकी सूचना हमें आगमों और आगमिक व्याख्याओं में प्राप्त नहीं होती है। जैनविवाह विधि का प्रचलन पर्याप्त रूप से परवर्ती है और दक्षिण के दिगम्बर आचार्यों की हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन । न है तो हिन्दू विवाह विधि का जैनीकरण मात्र है। उत्तर भारत के जैनों में तो विवाह विधि को हिन्दूधर्म के अनुसार ही सम्पादित किया जाता है। आज भी श्वेतांबर जैनों में अपनी कोई विवाह पद्धति नहीं है। जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं से जो सूचना हमें मिलती है । उसके अनुसार युगलिया काल के युगल रूप से उत्पन्न होनेवाले भाई-बहन की युवावस्था में पति-पत्नी का जीवन व्यतीत करते थे । जैन पुराणों के अनुसार सर्वप्रथम ऋषभदेव से ही विवाह प्रथा का आरम्भ हुआ । ' उन्होने भाई-बहनों के स्थापित होनेवाले यौन सम्बन्ध ( विवाह प्रणाली) को अस्वीकार कर दिया । उनकी दोनों पुत्रियों ब्राह्मी और सुंदरी ने आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने का निर्णय किया । फलतः भरत और बाहुबालि का अन्य वंशो की कन्याओं से विवाह किया गया। जैन साहित्य के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आगमिक काल तक स्त्री विवाह सम्बन्धी निर्णय करने को स्वतंत्र थी और अधिकांश विवाह उनकी सम्मति से ही किये जाते थे । जैसा कि 'ज्ञाता' में मल्ली और द्रोपदी के कथानकों से ज्ञात होता है । ज्ञाताधर्मकथा में पिता स्पष्ट रुप से पुत्री से कहता है कि यदि मैं तेरे लिए पति चुनता हूँ तो वह तेरे लिए सुख-दुःख का कारण हो सकता है, इसलिए अच्छा यही होगा तूं अपने पति का चयन स्वयं ही कर । मल्ली और द्रौपदी के लिए स्वयम्बरों का आयोजन किया गया था । पूर्वयुग में ब्राह्मी, सुंदरी, मल्ली, आगमिक युग में चंदनबाला, जयन्ती आदि ऐसी अनेक स्त्रियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं, जिन्होने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन स्वीकार २ १. २. आवश्यक चूर्णि, भा. १, पृ. १५२ ज्ञाताधर्मकथा - मल्ली एवं द्रौपदी कथानक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002766
Book TitleMahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyagunashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1998
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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