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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
नमः देश के नये प्रहरियों ! नमः पुरानी छाया। नाच रही है नचा रही है, अधिकारों की माया ॥'
___ *** राजतन्त्र में सामान्य जन धार्मिक रुढियों व सामाजिक दासता से पीड़ित था। छोटी-छोटी बातों को लेकर गणराज्यों में भी युद्ध ठन जाते थे। राजाओं की तरह धनिक व्यापारीवर्ग भी पशुओं की भाँति मनुष्यों को गुलाम बनाता था । दास-दासियों का लम्बा-चौड़ा परिवार उनकी सेवा में स्वयं को समर्पित किये खड़ा रहता था। इस प्रकार राजनैतिक दृष्टि से भी यह समय उथल पुथल था। उस में स्थिरता व एकरुपता नहीं थी। कई स्थानों पर प्रजातन्त्र गणराज्य थे, जिनमें नियमित रुप से प्रतिनिधियों का चुनाव होता था। जो प्रतिनिधि राज्य-मण्डल या सांथागार के सदस्य होते, वे जनता के व्यापक हितों का भी ध्यान रखते थे।
तत्कालीन गणराज्यों में लिच्छवी गणराज्य सबसे प्रबल था। इसकी राजधानी वैशाली थी। महाराजा चेटक इस गणराज्य के प्रधान थे। महावीर स्वामी की माता त्रिशला इन्हीं महाराजा चेटक की बहिन थी। काशी और कौशल के प्रदेश भी इसी गणराज्य में शामिल इनकी व्यवस्थापिका-सभा। “वज्जियन राजसंघ" कहलाती थी।
लिच्छवी गणराज्य के अतिरिक्त शाक्य गणराज्य का भी विशेष महत्व था। इसकी राजधानी “कपिलवस्तु" थी। इसके प्रधान महाराजा शुद्धोदन थे, जो गौतम बुद्ध के पिता थे। इन गणराज्यों के अलावा मल्लगण राज्य, जिस की राजधानी कुशीनारा
और पावा थी, कोल्य, गणराज्य, आम्लकष्या, बुलिगण, पिप्पलिवन के मोरीयगण आदि कई छोटे छोटे गणराज्य भी थे। इन गणराज्यों के अतिरिक्त मगध, उत्तरी कौशल, वत्स, अवन्ति, कलिंग, अंग, बंग आदि कतिपय स्वतंत्र राज्य भी थे। इन गणराज्यों में परस्पर मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे । देशकी शासन व्यवस्था एक ओर गणराज्यों की लोकतन्त्रात्मक पद्धति पर आधरित थी और दूसरी ओर राजतन्त्र व्यवस्था स्वतंत्र रुपसे विकसित हो रही थी। गणतन्त्रों में पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष एवं दलबंदी विद्यमान थी। राज्यों में परस्पर स्पर्धा बनी रहती थी।
राजनीति के क्षेत्र में भी भगवान महावीर की उपलब्धि किसी प्रकार कम नहीं कहीं जा सकती। जिस संक्रांति काल में उनका जन्म हुआ था, वह राजनीति का भी
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“वीरायण' : कवि मित्रजी, “पुष्प प्रदीप', सर्ग-१, पृ.२६
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