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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन जगती सब निर्मित इनसे ही और नहीं कुछ भी उपलब्ध।
जो कुछ दृश्य अदृश्य अवस्थित भिन्न समन्वय से है लव्य ॥१
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अतएव उक्त इन छह द्रव्योंते भिन्न वस्तु है लोक नहीं। इनमें से पुग्दल सिवा किसी
को भी सकते अवलोक नहीं। जीवद्रव्यः
संसार या मोक्ष दोनों में जीव प्रधान तत्व हैं। यद्यपि ज्ञान दर्शन स्वभावी होने के कारण वह आत्मा ही है फिर भी संसारी दशा में प्राण धारण करने से जीव कहलाता है। वह अनन्तगुणों का स्वामी एक प्रकाशात्मक अमूर्तिक सत्ताधारी पदार्थ है। अजीव द्रव्यः
जीव से नितान्त विरोधी चैतन्यरहित जड़ पदार्थो को अजीव द्रव्य कहा गया है। जैन दर्शन में इसके पांच प्रकार हैं। (१) धर्म (२) अधर्म (३) आकाश (४) पुद्गल (५) काल । यहाँ धर्म और अधर्म का प्रयोग पुण्य पाप के सन्दर्भ में नहीं है। ये दो स्वतंत्र पदार्थ सम्पूर्ण लोक में आकाश की भाँति व्यापक एवं अरुपी हैं। धर्म द्रव्यः
जो जीव और पुद्गल को गति प्रदान करने में सहायभूत बनता है वह पदार्थ धर्म कहलाता है। जैसे मछली को पानी में चलने में पानी सहायक है उसी प्रकार धर्म की गति प्रदायी पदार्थ हैं। अधर्म द्रव्यः
धर्म से विपरीत जो जीव और पुद्गल को स्थिर होने में सहायक होता है वह अधर्म द्रव्य कहलाता है। जैसे श्रमित पथिक को वृक्ष की छाया विश्राम का निमित्त भूत बनाती है वैसे ही अधर्म ठहरने में सहायक बनता है।
१. २.
“भगवान महावीर" : कवि शर्माजी, तीर्थंकर चिंतन, सर्ग-११, पृ.२२० “परमज्योति महावीर" : कवि सुधेयजी, सर्ग-२०, पृ.५२७
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