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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन जल में नौका तैर रही, जब छिद्र हो गया हो अति भारी। पानी भरने लगे नाव में तो आश्रव अतिशय भयकारी ।। एकत्रित फिर जलका होना, बंध जीव वैसे ही होता। जब बढता है नाव कांपती, बचने का क्या उपक्रम होता। छिद्र बनकर रोका जलको, यह संवर की क्रिया कहाती। एकत्रित जल को निर्गतकर, यही निर्जरा की गति आती॥
*** संवर से होगा नहीं नयेकर्मो का मुझ से योग पुनः। पूर्वाजित कर्मो के क्षयका, करना होगा उद्योग पुनः॥२
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अति घोर तपस्या करने से, हो जायेगा यह कार्य सरल। अविपाक निर्जरा होने से भागेंगे सारे कर्म निकल ॥३
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मोक्षतत्व:
अष्टकर्मों से निर्लेप होकर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त करना ही मोक्ष है। आत्माकी निर्विकार अवस्था होती है, वही निर्वाण है, वही सिद्धि, वही परमपद, वही चरम सीमा का आत्मविकास है और वही मोक्ष तत्व है। बारह व्रतः
जैन धर्म में श्रावकों के लिए बारह और साधु के लिए पांच महाव्रत होना अत्यावश्यक माना हैं। बारह व्रतधारी मनुष्य ही जैन कहलाने का अधिकारी बनता है। उसका जीवन अन्तर और बाह्य एकसा सरल-तरल होता है। मनुष्य को, मनुष्यत्व के
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“भगवान महावीर" : कवि शर्माजी, तीर्थंकर चिंतन, सर्ग-२१, पृ.२२२ “परमज्योतिमहावीर' : कवि सुधेयजी, सर्ग-१२, पृ.३२६ वही
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