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स्वकथ्य
मेरा यह महाप्रबंध " हिन्दी के महावीर प्रबंध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन" प्रस्तुत करते हुए मैं हर्ष और गौरव का अनुभव कर रही हूँ। पिछले अठारह वर्ष के साध्वी-जीवन में मैने जैन धर्म और दर्शन का गुरूचरणों में बैठकर अध्ययन किया । अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर जिनका जैन मान्यता से शासनकाल चल रहा है और ऐतिहासिक दृष्टि से भी भगवान इस देश की संस्कृति के महान ज्योतिर्धर रहे । भगवान महावीर का जीवन मैं धार्मिक श्रद्धा और भावना से पढ़ती रही और उनके पथ का तथाशक्ति अनुगमन करती रही। मेरे मन में महावीर एक संप्रदाय विशेष से अधिक जनजागरण के अग्रदूत रहे हैं। भगवान महावीर जैन दृष्टि से तीर्थंकर माने गये हैं, पर हम विशाल दृष्टि से देखें तो वे भारतीय जन-जीवन के मुक्तिदाता रहै हैं । विच्छृंखल देश के मार्गदर्शक बने । महावीर ने उस समय जबकि देश धर्म के नाम पर अहिंसा के घिनौने क्रियाकाण्डों में उलझा हुआ था, जाति-पाँति और ऊँच-नीच की संकीर्णताओ में दिन-प्रतिदिन पतन की ओर जा रहा था। जब नारी की स्थिति बदतर हो चूकी थी । शोषण का साम्राज्य बढ़ रहा था, उस समय क्रान्ति का शंखनाद इस महामानवने फूँका। देश में धर्म के नाम पर पहले तांत्रिकों -मांत्रिको के नाम के जाल को तोड़ा । अंधविश्वासों, हीनभावनाओं से ग्रसित मानव को मुक्ति का पंथ बताया।
महावीर ने सबसे पहले लोगों को उस वास्तविक धर्म का परिचय दिया जो मानव को मानव बनाता है । लोगों को उन्हीं की जनभाषा में सरल शब्दों में सत्पथ दर्शाया । उन्होने समाज के हर व्यक्ति को किसी भी भेदभाव के बिना अपना शिष्य बनाया । पहली बार लोगों को महसूस हुआ कि कोई उनका अपना हितैषी भी है । महावीर ने एकान्तवाद का विरोध करते हुए अनेकान्तवाद का समर्थन किया । वे मानते थे कि अपना ही दृष्टिकोण सही है - ऐसा मानना और दूसरों पर थोपना एकांतवाद है, परन्तु अपेक्षा की दृष्टि से दूसरों के विचारों को जानना, समझना, परीक्षण करना और स्वीकार करना यह अनेकान्तवाद है, भाषा में इसे स्याद्वाद के रूपमें प्रस्तुत किया गया है । यह महावीर की विशाल वैचारिक भावना और हृदय की विशालता का प्रतिबिंब है । महावीरने पहली बार स्त्री को पतिता या चार दिवारों की विलास की सामग्री न मानकर उसे पुरुष के समकक्ष तपस्विनी और मुक्ति की अधिकारीणी माना । मानवमात्र स्वतंत्र है, उसे स्वतंत्रतापूर्वक जीने का अधिकार है यह उद्घोष किया । अहिंसा मात्र
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