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________________ मनुष्यों का जन्म मध्यलोक के अन्तरवर्ती अढ़ाईद्वीप में ही होता है। अर्थात् जम्बूद्वीप, धातकीखंड तथा अर्धपुष्कर द्वीप इन अढ़ाई द्वीपों में मनुष्यों का जन्म तथा निवास है। मनुष्यों के मुख्यतः दो भेद है - 1. गर्भज (माता के गर्भ से उत्पन्न होने वाले) 2. समूर्छिम (गर्भजन मनुष्यों के मल-मूत्र आदि 14 प्रकार के शरीर के मलों में उत्पन्न होने वाले)। गर्भज मनुष्यों के तीन भेद है - 1. कर्मभूमिज, 2. अकर्मभूमिज तथा 3. अन्तर्वीपज। 15 कर्मभूमियाँ - जहाँ पर असि (शस्त्र - चालन व रक्षा कार्य), मसि (लेखन व व्यापार आदि) तथा कृषि (खेती आदि) कर्म करके जीवन निर्वाह किया जाता है उसे कर्म भूमि कहते है। कर्मभूमि में जन्मा मनुष्य ही धर्म की आराधना कर स्वर्ग तथा मोक्ष आदि प्राप्त कर सकता है। कर्मभूमियाँ 15 हैं। 5 भरत क्षेत्र, 5 ऐरावत क्षेत्र, तथा 5 महाविदेह। ये क्षेत्र जम्बूद्वीप में 1-1, घातकीखंड में 2-2 तथा पुष्करार्ध द्वीप में 2-2 यों 5+5+5 = 15 हैं। ___ 30 अकर्मभूमियाँ - जहाँ असि, मसि, कृषि आदि कर्म किये बिना ही केवल दस प्रकार के कल्पवक्षों द्वारा जीवन निर्वाह होता है. वह अकर्मभमि कहलाती है। अकर्मभमियाँ 30 है। 5 देव करु.5 उत्तर कुरु, 5 हरिवास, 5 रम्यक्वास, 5 हैमवत, तथा 5 हैरण्यवत क्षेत्र। कर्मभूमि की तरह ये क्षेत्र भी 1-1 जम्बूद्वीप में 2-2 घातकी खण्ड तथा 2-2 पुष्करार्ध द्वीप में है। इस प्रकार 5x6=30 अकर्म भूमियाँ है। इनमें रहने वाले मानव युगलिया कहे जाते है। 56 अन्तीप- जम्बूद्वीप के मध्य में एक लाख योजन का मेरूपर्वत है। मेरू पर्वत की दक्षिण दिशा में भरत क्षेत्र के पहले एक लघु हिमवान् पर्वत है। इसका पूर्वी तथा पश्चिमी किनारा लवणसमुद्र के भीतर तक चला गया है। भीतर में जाकर इस पर्वत से हाथी के दांत की तरह नुकीली दो-दो शाखाएँ (दाढाएँ) निकली हैं जो एक उत्तर में व एक दक्षिण में लवणसमुद्र के 900 योजन भीतर तक चली गई है। लवणसमुद्र की जगती से 300 योजन भीतर जाने पर इस शाखाओं पर योजन 300 से 900 योजन विस्तार वाले गोलाकार सात-सात द्वीप आते है। पहला द्वीप 300 योजन दूर जानेपर, दूसरा 400 योजन इस प्रकार सातवाँ द्वीप 900 योजन भीतर जाने पर आता है। इन द्वीपों में मनुष्यों की बस्ती है। यहाँ रहनेवाले मनुष्य अन्तर्वीपज कहलाते हैं। पूर्व दिशा की दाढा पर 7+7 = 14 | इसी प्रकार 1 पश्चिम दिशा की दाढा पर 14 कुल लघु हिमवान् पर्वत की चार दाढाओं पर 28 द्वीप है। इसी प्रकार मेरु पर्वत से उत्तर दिशा में, ऐरवत क्षेत्र से पहले शिखरी पर्वत है। इस पर्वत से भी उसी प्रकार की चार दाढाएँ निकली है। जिन पर 7-7 द्वीप हैं। यह 28 द्वीप मेरु से दक्षिण में 28 उत्तर में कुल 56 अन्तर्वीप कहलाते हैं। युगलिया मनुष्य - माता - पिता से दो संतानें एक साथ जन्म लेती है। इस कारण इन्हें युगल अथवा युगलिया कहते हैं। ये कृषि आदि कर्म नहीं करते अपित 10 प्रकार के कल्पवृक्षों के सहारे ही जीवन निर्वाह करते हैं। यह बहुत सरल परिणामी, अल्पकर्मा होते हैं। मृत्यु प्राप्त कर देवलोक में जाते हैं। युगलिया मनुष्य त्याग-तप आदि धर्माराधना नहीं कर सकते। इसलिए ये मोक्ष गति में नहीं जा सकते। इस प्रकार गर्भज मनुष्यों के 15 कर्मभूमि के + 30 अकर्म भूमि के + 56 अन्तर्वीप के = 101 भेद होते हैं। ये अपने उत्पत्ति के समय एक अन्तर्मुहूर्त के पहले अपर्याप्त दशा में रहते हैं तथा उसके पश्चात् आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा तथा मन-इन छह पर्याप्तियों से पूर्ण होते हैं। इस प्रकार 101 अपर्याप्त और 101 पर्याप्त, कुल 202 भेद इन गर्भज मनुष्यों के होते हैं। समूर्छिम मनुष्य - समूर्छिम जीव उन्हें कहते हैं जो माता के गर्भ के बिना ही उत्पन्न होते हैं। समूर्छिम मनुष्य, उक्त मनुष्यों के 14 प्रकार के अशुचि स्थानों में उत्पन्न होते हैं । जैसे 1. मल 2. मूत्र 3. कफ 4. नाक का मैल 5. वमन 6. पित्त 7. पीव 8. रक्त 9. शुक्र 10. वीर्य आदि के पुनः गीले हुए पुद्गल 11. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002764
Book TitleJain Dharma Darshan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2010
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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