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वर्धमान को डिगा सकता था, मगर आपने रोक दिया-छः मास तक इन्द्र, देव और देवांगनाएं सब शोक मग्न रहे। - छः मास बाद वह पापात्मा संगम खिन्न होकर स्वर्ग में चला गया, इन्द्र महाराज ने देवांगना सहित उसको वहां से निकाल दिया, वह मेरुचूला पर जाकर रहने लगा।
अभिग्रह-समाप्ति में चन्दनबाला द्वारा उड़द के बाकले का दान और दानप्रभाव
प्रभु ने एक बार 13 बोलों का विकट अभिग्रह किया, जो इस प्रकार था - अविवाहिता राज कन्या हो जो निरपराध एवं सदाचारिणी हो-तथापि वह बन्दिनी हो, उसके हाथों में हथकड़ियां व पैरों में बेड़ियां हो- वह मुण्डित शीष हो-वह 3 दिनों से भूखी हो-वह खाने के लिए सूप में उबले हुए बाकुले लिए हुए हो-वह प्रतीक्षा में हो, किसी अतिथि की-वह न घर में हो, न बाहर-वह प्रसन्न वदना हो-किन्तु उसके आंखों में आंसू बहते हों।
यदि ऐसी अवस्था में वह नप कन्या अपने भोजन में से मुझे भिक्षा दे, तो मैं आहार करूंगा अन्यथा 6 माह तक निराहार ही रहंगा - यह अभिग्रह करके भगवान यथाक्रम विचरण करते रहे और श्रद्धालुजन नाना खाद्य पदार्थों की भेंट सहित उपस्थित होते, किन्तु वे उन्हें अभिग्रह के अनुकूल न पाकर अस्वीकार करके आगे बढ़ जाते थे। इस प्रकार 5 माह 25 दिन का समय निराहार ही बीत गया। उसी समय वहां ऐसा हआ कि चम्पापति राजा दधिवाहन की पुत्री चन्दनबाला को पापोदयवश बिकने का प्रसंग आया। धनावह ने उसे खरीदा। उसकी अनुपस्थिति में सेठ की पत्नी मूला ने ईर्ष्यावश उसका सिर मुंडवाकर तथा पैर में बेड़ियां डालकर उसे तलघर (भूमिगृह) में डाल दिया। तीन दिन बाद सेठ को पता लगने पर उसे बाहर निकाला और सूप के कोने में उड़द के बाकले खाने को दिये। वह दान देने के लिये किसी जैन निर्ग्रन्थ-मुनि की प्रतीक्षा कर रही थी, इतने में स्वयं करपात्री भगवान पधारे। स्वीकृत अभिग्रह पूर्ति में केवल आंसुओं की कमी देखी, अतः वे वापस जाने लगे, यह देखकर चन्दना जोर से रो पड़ी। भगवान रुदन सुनकर लौट आये और दोनों कर पसारकर चन्दन बाला (चंदना) से भिक्षा ग्रहण कर भगवान ने आहार किया। उस समय दानप्रभाव से देवकृत पांच दिव्य प्रकट हुए। और साढा बारह करोड़ सोनैयों की वर्षा की, चंदना के सिर पर नूतन वेणी रचदी और पैरों में सांकल की जगह झांझर बन गये। ____ ग्वाले का तीक्ष्ण काष्ठसलाका द्वारा अति दारूण कर्णोपसर्ग तथा उसका निवारण
जब भगवान ने अपनी साधना के 12 वर्ष व्यतीत कर लिये तो उन्हें अन्तिम और अति दारुण उपसर्ग उत्पन्न हुआ था। वे विहार करते हुए छम्माणीग्राम में पहुंचे थे। वहां ग्राम के बाहर ही एक स्थान पर वे ध्यानमग्न होकर खड़े थे।
वासुदेव के भव में शय्यापालक के कान में शीशा डलवाया था, वह मरकर ग्वाला हुआ। वह ग्वाला आया और वहां अपने बैलों को छोड़ गया। जब वह लौटा तो बैल वहां नहीं थे। भगवान को बैलों के वहां होने
और न होने की किसी भी स्थिति का भान नहीं था। ध्यानस्थ भगवान से ग्वाले ने बैलों के विषय में प्रश्न किये, किन्तु भगवान ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे तो ध्यानालीन थे। क्रोधान्ध होकर ग्वाला कहने लगा कि इस साधु को कुछ सुनाई नहीं देता, इसके कान व्यर्थ है। इसके इन व्यर्थ के कर्णरंध्रों को मैं आज बंद ही कर देता हूं। और भगवान के दोनों कानों में उसने काष्ट शलाकाएं ठूस दी। कितनी घोर यातना थी? कैसा दारुण
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