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24वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी वर्तमान अवसर्पिणी काल में 24 तीर्थंकरों की जो परम्परा भगवान ऋषभदेव के जीवन चारित्र से प्रारंभ हुई थी, उसके अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हुए हैं। 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के 250 वर्ष पश्चात् और ईसा पूर्व छठी शताब्दी (6th Century B.C.)अर्थात् आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने जनमानस को कल्याण का मार्ग बताया था।
आचारांग सूत्र के नवें अध्ययन तथा कल्पसूत्र में हमें भगवान महावीर के जीवन-दर्शन का सुन्दर विवेचन मिलता है। भगवान महावीर एक जन्म की साधना में ही महावीर नहीं बने, मानव से महामानव के पद पर नहीं पहुंचे। अनेक जन्म-मरण की परम्पराओं से गुजरते हुए 'नयसार' के भव में उन्होंने विकास की सही दिशा पकड़ी, सम्यग् दर्शन को प्राप्त किया और सत्ताइसवें भव में वे महावीर बनें।
यह मुख्य 27 भव रहे। इसके अलावा कई क्षुल्लकभव (छोटे-छोटे) भी किए। पूर्व भवों का संक्षिप्त उल्लेख:
भव०
पहला भव - इस जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में प्रतिष्ठान पट्टन में नयसार नामक राजा का ग्रामचिंतक एक नौकर था, वह एक समय राजा की आज्ञा को पाकर बहुत से गाड़े और नौकर साथ में लेकर लकड़ियां लेने के लिए वन में गया, वहां एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था, उस समय कुछ साधु महाराज वहां पधारे, उनको नयसार ने देखा, सामने बहुमान पूर्वक जाकर वंदन करके अपने स्थान पर ले आया, अपने भाते में से उच्च भाव से आहार बहराकर, उनसे कुछ धर्म सुना और उन्हें रास्ता बता दिया। मुनियों को आहार देने से और वंदन करने से नयसार ने यहां पर सम्यक्त्व उपार्जन किया।
दूसरा भव - नयसार का भव पूरा करके भगवान महावीर का जीव पहले देवलोक में देव हुआ।
तीसरा भव - देवलोक से च्यवकर ऋषभदेव स्वामी का पौत्र-भरत चक्रवर्ती का पुत्र मरिची नाम का हआ - एक समय ऋषभदेव प्रभु की देशना सुनकर दीक्षा अंगीकार कर ली। कुछ दिनों के बाद मरिची दीक्षा पालन में असमर्थ हुआ, इससे साधु वेष त्याग कर त्रिदण्डी वेष धारण किया, पैर में खड़ाउ रखे, मस्तक मुंडाने लगा जल कमण्डलु धारण किया
और गेरु के रंगे हुए वस्त्र पहनने लगा, समवसरण के बाहर इस ढंग से रहता है, जो लोग उसके पास धर्म सुनने को आते, उनको प्रतिबोध देकर भगवंत के पास दीक्षा लेने भेज देता था।
*HARARIANAR.20AMARIKA