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उत्सर्पिणी काल :- अवसर्पिणी काल के जिन छह आरों का वर्णन किया गया है वहीं छह आरे उत्सर्पिणी काल में होते हैं। अन्तर यह है कि उत्सर्पिणी काल में वे सभी विपरित क्रम में होते हैं। उत्सर्पिणी काल दुषमा-दुषमा आरे से आरंभ होकर सुषमा-सुषमा पर समाप्त होता है। उनका वर्णन इस प्रकार है - __ (1) दुषमा-दुषमा - उत्सर्पिणी काल का पहला दुषमा-दुषमा आरा 21,000 वर्ष का श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन आरंभ होता है। इसका वर्णन अवसर्पिणी काल के छठे आरे के समान ही समझना चाहिए। विशेषता यह है कि इस काल में आय और अवगाहना आदि क्रमशः बढती जाती है। हास के बाद क्रमिक विकास की ओर समय का प्रवाह बढता है।
(2) दुषमा - इसके अनन्तर दूसरा दुषमा आरा भी 21 हजार वर्ष का होता है और वह भी श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन से आरंभ होता है। इस आरे के आरंभ होते ही पांच प्रकार की वृष्टि संपूर्ण भरत क्षेत्र में होती है। यथा (1) आकाश, घन-घटाओं के आच्छादित हो जाता है और विद्युत के सात दिन-रात तक निरंतर पुष्कर संवर्तक नामक मेघ वृष्टि करते हैं। इससे धरती की उष्णता दूर हो जाती है। (2) इसके पश्चात सात
रहती है। फिर सात दिन पर्यन्त निरन्तर दग्ध के समान क्षीर नामक मेघ बरसते हैं, जिससे सारी दर्गन्ध दर हो जाती है। फिर सात दिन तक वर्षा बंद रहती है। फिर (3) घत नामक मेघ सात दिन-रा निरन्तर बरसते रहते हैं। इससे पृथ्वी में स्निग्धता आ जाती है। (4) फिर लगातार सात दिन-रात तक निरन्तर अमृत के समान अमृत नामक मेघ बरसते हैं। इस वर्षा से 24 प्रकार के धान्यों के तथा अन्यान्य सब वनस्पतियों के अंकुर जमीन में से फूट निकलते हैं। (5) फिर सात दिन खुला रहने के बाद ईख के रस के समान रस नामक मेघ सात दिन-रात तक निरन्तर बरसते है, जिससे वनस्पति में मधुर, कटक, तीक्षण, कषैले
और अम्ल रस की उत्पत्ति होती है। ___ पांच सप्ताह वर्षा के और दो सप्ताह खुले रहने के, यों सात सप्ताहों के 7 X 7=49 दिन, श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से भाद्रपद शुक्ला पंचमी तक होते हैं। व्यवहार में उस ही दिन संवत्सरारंभ होने से 49-50वें दिन संवत्सरी महापर्व किया जाता है, इसलिए यह संवत्सरी पर्व भी अनादि से है, अनन्तकाल तक रहेगा।
निसर्ग की यह हरी-भरी निराली लीला देखकर गुफा रूप बिलों में रहने वाले वे मनुष्य चकित हो जाते हैं और बाहर निकलते हैं। मगर वृक्षों और लताओं के पत्ते हिलते देखकर भयभीत हो जाते हैं और फिर अपने बिलों में घुस जाते है। किंतु बिलों में भीतर की दुर्गन्ध से घबराकर फिर बाहर निकलते हैं। प्रतिदिन यह देखते रहने से उनका भय दर होता है और फिर निर्भय होकर वक्षों के पास पहंचते हैं। फिर फलों का आहार करने लगते हैं। फल उन्हें मधुर लगते हैं और तब वे मांसाहार का परित्याग कर देते हैं। मांसाहार से उन्हें इतनी घृणा हो जाती है कि वे जातीय नियम बना लेते हैं कि अब जो मांस का आहार करे, उसकी परछाई में भी खडा नहीं रहना। इस प्रकार धीरे-धीरे जाति-विभाग भी हो जाते हैं और पांचवें आरे के समान (वर्तमानकाल जैसी) सब व्यवस्था स्थापित हो जाती है। वर्णादि की शुभ पर्यायों में अनंत गुणी वृद्धि होती है।
दुषमा-सुषमा - यह आरा 42 हजार वर्ष कम एक कोडा कोडी सागरोपम का होता है। इसकी सब रचना अवसर्पिणी काल के चौथे आरे के समान ही होती है। इसके तीन वर्ष और 8.5 महीना व्यतीत होने के बाद प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है। पहले कहे अनुसार इस आरे में 23 तीर्थंकर, 11 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव आदि होते हैं। पुद्गलों की वर्ण आदि शुभ पर्यायों में अनंत गुणी वृद्धि होती है।
(4) सुषमा-दुषमा - तीसरा आरा समाप्त होने पर चौथा सुषमा-दुषमा आरा दो कोडाकोडी सागरोपम का आरंभ होता है। इसके 84 लाख पूर्व, 3 वर्ष और 8.5 महीने बाद चौबीसवें तीर्थंकर मोक्ष चले जाते हैं, बारहवें चक्रवर्ती की आयु पूर्ण हो जाती है। करोड पूर्व का समय व्यतीत होने के बाद कल्पवृक्षों की उत्पत्ति होने लगती है। उन्हीं से मनुष्यों और पशुओं की इच्छा पूर्ण हो जाती है। तब असि, मसि, कृषि आदि के काम-धंधे बंद हो जाते हैं। युगल उत्पन्न होने लगते हैं। बादर अग्निकाय और धर्म का विच्छेद हो जाता है। इस प्रकार