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सुलसा श्राविका
कुशाग्रपुर नगर में नाम नाम का रथिक रहता था। वह राजा प्रसेनजित का सेवक था । सुलसा नाम की उसकी भार्या(पत्नि) थी। वह शील सदाचार पतिव्रता और समकित में दृढ़ जिनोपासिका थी । सुखपूर्वक जीवन व्यतीत हो रहा था। किन्तु पुत्र का अभाव था। जिससे चिन्तित रहते थे। सुलसा ने पति को अन्य कुमारिका से लग्न करने
का आग्रह किया परंतु रथिक ने अस्वीकार कर दिया। सुलसा ब्रह्मचर्य युक्त आचाम्ल आदि तप करने लगी। सौधर्म देवलोक में देवों की सभा में शकेन्द्र ने कहा अभी भरत क्षेत्र में सुलसा श्राविका देव गुरू और धर्म की आराधना में निष्ठापूर्वक तत्पर हैं । इन्द्र की बात पर एक देव विश्वास नहीं कर सका। और वह सुलसा की परीक्षा करने चला गया। देव साधु का रूप बनाकर आया। सुलसा उठी, और वंदना की। मुनिराज ने कहा- एक साधु रोगी है। उसके लिए लक्षपाक तेल चाहिए। सुलसा हर्षित हुई। इससे बढ़कर उसका क्या सदुपयोग होगा? वह उठी तेल कुंभ लाने गई। कुंभ हाथ से छूटकर फूट गया। दूसरा कुंभ लाने गई तो वह भी इसी
प्रकार देव शक्ति से हाथ से छूटकर गिर गया। तीसरा कुंभ लाई उसकी भी वही दशा हुई। इस प्रकार सात कुंभ फूट गये। उसके मन में रंच मात्र भी खेद नहीं हुआ। उसने सोचा मैं कितनी दुर्भागनी हूं कि मेरा तेल रोगी साधु के काम नहीं आया। तेल नष्ट होने की चिन्ता नहीं थी । देव अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुआ और बोला- भ्रदे! शकेन्द्र ने तुम्हारी धर्मदृढ़ता की प्रशंसा की। मैं सहन नहीं कर सका, परंतु अब मैं तुम्हारी धर्मदृढ़ता देखकर संतुष्ट हूं। तुम इच्छित वस्तु मांगो। सुलसा ने कहा- यदि आप मुझ पर प्रसन्न हो, तो पुत्र दीजिए। मैं अपुत्री हूं। इसके अतिरिक्त मुझे कुछ नहीं चाहिए। देव ने उसे बत्तीस गुटिका दी और कहा- तू इन्हें एक के बाद दूसरी, इस प्रकार अनुक्रम से लेना। तेरे बत्तीस सुपुत्र होंगे। इसके अतिरिक्त जब तुझे मेरी सहायता की आवश्यकता हो मेरा स्मरण करना। मैं उसी समय आकर तेरी सहायता करूंगा। देव अदृश्य हो गया ।
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सुलसा ने सोचा अनुक्रम से गुटिका लेने पर एक के बाद दूसरा हो और जीवन भर उनका मलमूत्र साफ करती रहूं। इससे तो अच्छा है कि एक साथ सारी गुटिकायें खालूं। जिससे बत्तीस लक्षणवाला पुत्र हो जाए। ऐसा
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