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________________ करते थे। वे सूत कातने से बचे समय में सामायिक किया करते थे। सामायिक याने प्राणी मात्र में आत्मानुभूति। ___ अचानक राजा को अपने घर-आंगन में देख पूणिया प्रसन्न हुआ। प्रसन्नता के साथ उसके मन में भय भी था। वह राजा के आगमन का कारण नहीं समझ पाया। पूणिया कोई इतना बड़ा आदमी नहीं था कि उसके घर राजा आए। वह रूई की पूनियां बनाकर बेचता और उसी से अपने परिवार का निर्वाह करता था। उसने बद्धाजलि होकर पूछा-'महाराज'! आपने अनुग्रह करके मेरी कुटिया को पावन बनाया है। कहिए, मैं आपकी क्या सेवा करूं? राजा ने कहा-श्रावकजी! मैं एक अति आवश्यक कार्य के लिए आपकी सेवा में आया हं। श्रावक ने कहाफरमाईये! श्रेणिक ने कहा-एक साधारण सी बात है। भगवान महावीर ने मेरे नरकगमन रूकने के चार उपाय । उनमें से तीन से मैं परास्त हो चुका हूं। अब अन्तिम आपका ही सहारा है, मुझे एक सामायिक मोल दीजिए? जिससे मेरा नरक गमन रूक जाए। एकदम नई बात सुन पूणिया श्रावक कुछ सोचने लगा तो श्रेणिक ने कहा-आप चिन्ता न करें। मैं आपकी सामायिक मुफ्त में नहीं लूंगा। उसके लिए जितना पैसा लेना चाहो, ले लो। पूणिया बोला-'मेरे पास जो कुछ है, वह आपका ही है। मैं आपके किसी काम आ सकू, इससे बढ़कर मेरा क्या सौभाग्य होगा।' श्रेणिक सामायिक लेने के लिए तैयार और पूणिया देने के लिए तैयार। किन्तु उसके मूल्य को लेकर समस्या खड़ी हो गई। आखिर दोनों भगवान के पास पहुंचे। श्रेणिक ने भगवान से सामायिक का मूल्य पूछा। __भगवान ने बताया राजन्! तुम्हारा सारा राज्य और स्वर्ण की सर्वराशि जो बावन डूंगरियां, जिनती सम्पत्ति तुम्हारे पास है, वह सर्व एक सामायिक की दलाली के लिए भी पर्याप्त नहीं है। जब दलाली भी पूरी नहीं बनती है, तो मूल्य की बात बहुत दूर है। दूसरी रीत से समझाते हुए कहा, कोई अश्व खरीदी के लिये जाये, उसकी लगाम की कीमत जितनी तेरी समग्र राजऋद्धि गिनी जाय और अश्व की कीमत तो बाकी ही रहेगी, उसी प्रकार पुणिया श्रावक की सामायिक अमूल्य है। उसकी कीमत नहीं आंकी जा सकती। सामायिक आत्मा की शुद्ध अनुभूति है। जिसका मूल्यांकन भौतिक सम्पत्ति के साथ नहीं किया जा सकता। अब इस पुणिया श्रावक का जीवन कैसा था वह देखे : पुणिया श्रावक प्रभु महावीर का यथार्थ भक्त था। वीर की वाणी सुनकर उसने सर्व परिग्रहों का त्याग किया था। आजीविका चलाने के लिए रूई की पूनियां बनाकर बेचता व उसमें से मिलते दो आने से संतोष पाता। वह और उसकी स्त्री दोनों ही स्वामी वात्सल्य करने हेतु एकांतर उपवास करते थे। प्रतिदिन दो की रसोई बनती और बाहर के एक अतिथि साधर्मिक को भोजन कराते। इसलिए एक को उपवास करना पड़ता था। दोनों साथ बैठकर सामायिक करते थे। अपनी स्थिति में संतोष मानकर सुखपूर्वक रहते थे। एक दिन सामायिक में चित्त स्थिर न रहने से श्रावक ने अपनी पत्नि को पूछा, 'क्यों! आज सामायिक में चित्त स्थिर नहीं है। उसका कारण क्या? तुम कुछ अदत्त या अनीति का द्रव्य लाई हो? श्राविका ने सोचकर कहा, 'मार्ग में गोहरे पड़े थे वह लायी थी। दूसरा कुछ लाई नहीं हूं। पुणिया श्रावक बोला, 'मार्ग में गिरी हुई चीज हम कैसे ले सकते है ? वह तो राजद्रव्य गिना जाता है। सो गोहरे वापिस मार्ग पर फेंक देना और अब दुबारा ऐसी कोई चीज रास्ते पर से उठा मत लाना। हमें बेहक्क का कुछ भी नहीं चाहिये।' धन्य पुणिया श्रावक...जिसके बखान भगवान महावीर ने स्वमुख से किये। भगवान महावीर का उत्तर सुनकर राजा श्रेणिक अवाक रह गया। मगर राजा को यह तत्त्व समझ में आ गया कि सामायिक की धर्मक्रिया खरीदी नहीं जा सकती। वह अमोल है। धर्म स्वआचरण की वस्तु है। धन्य है पूणिया श्रावक जी को जो पवित्र निर्मल और अति संतुष्ट जीवन जी रहे हैं। वे कितने अल्प परिग्रहधारी है। फिर भी परम सुखी है। समझाते है कि सुख परिग्रह में नहीं है, परंतु इच्छाओं को कम करने में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002764
Book TitleJain Dharma Darshan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2010
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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