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________________ श्री गौतम गणधर देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध प्राप्त कराकर वापिस लौटे, मार्ग से देवताओं की वार्ता से प्रभु के निर्वाण के समाचार सुने और एकदम भड़क उठे और बड़ा दुःख हुआ। प्रभु के गुण याद करके 'वीर! हो वीर!' ऐसे बिलबिलाहट के साथ बोलने लगे, और अब मैं किसे प्रश्न पूछूगा ? मुझे कौन उत्तर देगा? अहो प्रभु! आपने यह क्या किया? आपके निर्वाण समय पर मुझे क्यों दूर किया? क्या आपको ऐसा लगा कि यह मुझसे केवलज्ञान की मांग करेगा? बालक बेसमझ से मां के पीछे पड़े वैसे ही मैं क्या आपका पीछा करता? परंतु हां प्रभु! अब मैं समझा। अब तक मैंने भ्रांत होकर निरोगी और निर्मोही ऐसे प्रभु में राग और ममता रखी। ये राग और द्वेष तो संसार भ्रमण का हेतु है। उनका त्याग करवाने के लिए ही परमेष्ठी ने मेरा त्याग किया होगा। ममता रहित प्रभु पर ममता रखने की भूल मैंने की क्योंकि मुनियों को तो ममता में ममत्व रखना युक्त नहीं हैं। इस प्रकार शुभध्यान परायण होते ही गौतम गणधर क्षपक श्रेणी में पहुंचे और तत्काल घाति कर्म का क्षय होते ही उनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ। बारह वर्ष केवलज्ञान पर्याय के साथ बरानवे(92) वर्ष की उम्र में राजगृही नगरी में एक माह का अनशन करके सब कर्मों का नाश करते हुए अक्षय सुखवाले मोक्षपद को प्राप्त किया। पाकया। महासती चन्दनबाला ईसा से लगभग 600 वर्ष पूर्व चम्पानगरी में दधिवाहन राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम धारिणी व पुत्री का नाम वसुमति था। एक बार शत्रु राजा शतानिक ने चम्पानगरी पर आक्रमण कर दिया। शत्रु सैनिकों ने चम्पानगरी में लूटपाट मचाना शुरु कर दिया। आकस्मिक आक्रमण का मुकाबला नहीं कर पाने की स्थिति होने से दधिवाहन राजा जंगल में चले गये। शत्रु सेना के एक सारथी ने रानी धारिणी व वसुमति का अपहरण कर लिया। जब वह एकान्त जंगल में चा तो उसने अपनी कुत्सित भावना रानी के सामने प्रकट की। किन्तु रानी ने अपने शील की रक्षा के लिये जीभ खींचकर प्राण त्याग दिये। यह देखकर असहाय वसमति का हृदय रो रथी को दृढ़ शब्दों में कहा-खबरदार! जो मुझे छुआ। अगर मेरे हाथ लगाया तो मैं भी माता के समान प्राण दे दूंगी। सारथी ने विश्वास दिलया कि वह वसुमति के साथ बेटी के समान व्यवहार करेगा। वह वसुमति को अपने घर ले गया, पर उसकी पत्नि उसे देखते की क्रुद्ध हो उठी व उससे झगड़ने लगी तब सारथी ने उसे बेचने का निश्चय किया। सारथी ने राजकुमारी को कोशाम्बी नगरी के बाजार में बेचने हेतु चौराहे पर खड़ा कर दिया। कोशाम्बी के सेठ धनवाह ने मुंह मांगा दाम देकर वसमति को खरीद लिया। उसके कोई संतान नहीं थी। अतः सेठ वसमति को अपनी पुत्री के समान स्नेह से रखने लगा। वह स्नहे से उसे 'चन्दना' कहकर पुकारता था, तभी से वसुमति का नाम 'चन्दनबाला' समझा जाने लगा। सेठजी की स्त्री मूला के मन में संदेह हुआ कि कहीं सेठजी इस चन्दना से शादी न कर लें। एक दिन सेठ बाहर से आये थे। पैर धूल से भरे थे। नौकर कोई मौजूद नहीं था। विनयी चन्दनबाला स्वयं पानी लेकर दौड़ी और सेठ के पैर धोने लगी। उस समय उसकी चोटी छूट गई। चन्दनबाला के लम्बे और काले बाल कीचड़ से न भर जाएं, इस विचार से सेठ ने अपनी छड़ी से बाल ऊपर कर दिये। चन्दनबाला जब खड़ी हुई तो स्नेह से उसकी चोटी बांध दी। चन्दना की चोटी बांधते सेठ को मूला ने देख लिया। फिर तो पूछना ही क्या था! उसकी आशंका पक्की हो गई। अगर सेठ से उसी समय पूछ लिया होता तो सेठानी को वहम नहीं होता। किन्तु जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि। वहमी मनुष्य विचार नहीं कर सकता। ___ मूला ईर्ष्या की आग में चलने लगी। एक बार सेठजी कहीं बाहर गये हुए थे। सेठानी तो ऐसे अवसर की ताक में थी। उसने चन्दनबाला का सिर मूंड दिया, हाथों SARAL104 ******* GainEducation international Somerseruhiy Wwwjanneltoraryorg
SR No.002764
Book TitleJain Dharma Darshan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2010
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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