SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ x का चरित्र सुनाकर उनका संशय दूर किया। __'इस प्रकार गौतम स्वामी ने कहा हुआ पुंडरीक-कंडरीक का अध्ययन समीप में बैठे वैश्रवण देव ने एकनिष्ठा से श्रवण किया और उसने सम्यक्त्व प्राप्त किया। ___ इस प्रकार देशना देकर रात्रि वहां व्यतीत करके गौतम स्वामी प्रातःकाल में उस पर्वत पर से उतरने लगे, राह देख रहे तापस उनको नजर आये। तापसों ने उनके समीप आकर, हाथ जोड़कर कहा, 'हे तपोनिधि महात्मा! हम आपके शिष्य बनते हैं, आप हमारे गुरु बनें।' तत्पश्चात् उन्होंने बड़ा आग्रह किया तो गौत्म ने उन्हें वही पर दीक्षा दी। देवताओं ने तुरन्त ही उनको यतिलिंग दिया। तत्पश्चात् वे गौतम स्वामी के पीछे पीछे प्रभु महावीर के पास जाने के लिए चलने लगे। ___ मार्ग में कोई गांव आने पर भिक्षा का समय हुआ तो गौतम गणधर ने पूछा, आपको पारणा करने के लिये कौनसी इष्ट वस्तु लाऊं।' उन्होंने कहा, 'पायस लाना।' गौतम स्वामी अपने उदर का पोषण हो सके उतनी खीर एक पात्र में लाये। तत्पश्चात् गौतम स्वामी कहने लगे, हे महर्षियों! सब बैठ जाओ और पायसान्न से सर्व पारणा करें।' तब सबको मन में ऐसा लगा कि 'इतने पायसान्न से क्या होगा? यद्यपि हमारे गुरु की आज्ञा हमें माननी चाहिए। ऐसा मानकर सब एक साथ बैठ गये। तत्पश्चात् इन्द्रभूति ने अक्षीण महानस लब्धि द्वारा उन सर्व को पेट भर कर पारणा करवाया और उन्हें अचरज में छोड़कर स्वयं आहार करने बैठे। जब तापस भोजन करने बैठेथेतब, 'हमारे पूरे भाग्ययोग से श्री वीर परमात्मा जगदगुरु हमें धर्मगुरु के रूप में प्राप्त हुए हैं व पितातुल्य बोध करने वाले मुनि भी मिलना दुर्लभ है, इसलिये हम सर्वथा पुण्यवान है।' इस प्रकार की भावना करने से शुष्क काई भक्षी पांच सौं तापसों को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। दत्त वगैरह अन्य पांच सौ तापसों को दूर से प्रभु के प्रातिहार्य को देखकर उज्ज्वल केवलज्ञान प्राप्त हुआ। और कौडीन्य वगैरह बाकी के पांच सौतापसों को दूरसे भगवंत केदर्शन होते ही केवलज्ञान प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् उन्होंने श्री वीर प्रभु की प्रदक्षिणा की और वे केवली की सभा की ओर चले। गौतम स्वामी ने कहा, 'इन वीर प्रभु की वंदना करो।' प्रभु बोले, गौतम! केवली की आशातना मत करो। गौतम स्वामी ने तुरन्त ही मिथ्या दुष्कृत देकर उनसे क्षमापना की। उस समय गौतम ने पुनः सोचा, 'जरूर मैं इस भव में सिद्धि प्राप्त करूंगा। क्योंकि में गुरुकर्मी हूं। इन महात्माओं को धन्य है कि जो मुझसे दीक्षित हुए परंतु जिनको क्षण भर में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ।' ऐसी चिंता करते हुए गौतमकेप्रति श्री वीर प्रभु बोले, 'हेगौतम! तीर्थंकरों का वचन सत्य या अन्य का?' गौतम ने कहा 'तीर्थंकरों का तो प्रभु बोले, अब अधैर्य रखना मत। गुरु का स्नेह शिष्यों पर द्विदल पर के छिलके समान होता है। वह तत्काल दूर हो जाता है और गुरु पर शिष्य का स्नहे है तो तुम्हारी तरह ऊन की कडाह जैसा दृढ़ है। चिरकाल के संसर्ग से हमारे पर आपका स्नेह बहुत दृढ हुआ है। इस कारण आपका केवलज्ञान रूक गया है। जब उस स्नेह का अभाव होगा तब केवल ज्ञान जरूर पाओगे। 'प्रभु से दीक्षा लेने के 30 वर्ष के बाद एक दिन प्रभु ने उस रात्रि को अपना मोक्ष ज्ञात करके सोचा, 'अहो! गौतम को मेरे पर अत्यंत स्नेह है और वही उनको केवलज्ञान प्राप्ति में रूकावट बन रहा है, इस कारण मुझे उस स्नेह को छेद डालना चाहिये।' इसलिए उन्होंने गौतम स्वामी को बुलाकर कहा, 'गौतम! यहां से नजदीक के दसरे गांव में देवशर्मा नामक ब्राह्मण है। वह तुमसे प्रतिाबेध पायेगा, इसलिये आप वहां जाओ।' यह सुनकर जैसी आपकी आज्ञा' ऐसा कहकर गौतम स्वामी प्रभु को वंदन करके वहां गये और प्रभु का वचन सत्य किया, अर्थात् देवशर्मा को प्रतिबोधित किया। कार्तिक मास की अमावस्या के दिन पिछली रात्रि को चन्द्र स्वाति नक्षत्र में आते ही जिन्होंने छठ का तप किया नामक अध्ययन कहने लगे। उस समय आसन कम्प से प्रभु का मोक्ष समय जानकर सुर और असुर के इन्द्र परिवार सहित वहां आये| शक्रेन्द्र ने प्रभु को हाथ जोड़कर संभ्रम के साथ इस प्रकार कहा, 'नाथ! आपके गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान हस्तोत्तरा नक्षत्र में हुए है, इस समय स्वाति नक्षत्र में मोक्ष होगा परंतु आपकी जन्म पर भस्मग्रह संक्रांत होने वाला है, जो आपके संतानों (साधु-साध्वी) को दो हजार वर्ष तक बाधा उत्पन्न करेगा, इसलिए वह भस्मक ग्रह आपके जन्म नक्षत्र संक्रमित हो तब तक आप राह देखे, इस कारण प्रसन्न होकर पल भर के लिए आयुष्य बढ़ा लो जिससे दुष्ट ग्रह का उपशम हो जावे।' प्रभु बोले, 'हे शक्रेन्द्र! आयुष्य बढ़ाने के लिए कोई भी समर्थनहीं है।' ऐसा कहकर समुच्छित क्रिय चौथे शुक्ल ध्यान को धारण किया और यथा समय ऋजु गति से ऊर्ध्वगमन करके मोक्ष प्राप्त किया। RASHWAHARASHAKAKASAKARAKARMYSAN SARKARMAHARAxxxxxx Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002764
Book TitleJain Dharma Darshan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2010
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy