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भाषा की वाच्यता सामर्थ्य: ८१
हैं। उनकी मान्यता है कि जिस प्रकार हस्त-संकेत आदि अपने अभिव्यंजनीय अर्थ के साथ अनित्य रूप से सम्बन्धित होकर इष्ट अर्थ की अभिव्यक्ति कर देते हैं उसी प्रकार शब्द-संकेत भी अपने अर्थ से अनित्य रूप से सम्बन्धित होकर भी अर्थबोध करा देते हैं।' जैनों के अनुसार शब्द और अर्थ (विषय) दोनों की विविक्त सत्ताएँ हैं। अर्थ में शब्द नहीं है और न अर्थ शब्दात्मक ही है । फिर भी दोनों में एक सम्बन्ध अवश्य है। शब्दों में अपने अर्थ के वाचक होने की सीमित सामर्थ्य है। जैन आचार्यों को बौद्धों का यह सिद्धान्त भी मान्य नहीं है कि शब्द और अर्थ में कोई सम्बन्ध ही नहीं है। उनका कथन है कि यदि शब्द का अपने अर्थ से कोई सम्बन्ध ही नहीं माना जायेगा तो समस्त भाषा-व्यवहार की प्रामाणिकता ही समाप्त हो जावेगी और पारस्परिक अभिव्यक्ति का कोई साधन ही नहीं रहेगा। इसीलिए जैन दार्शनिकों ने वाच्य-वाचक सम्बन्ध माना है । शब्द अपने विषय का वाचक तो होता है किन्तु उसकी समस्त विशेषताओं का सम्पूर्णता के साथ निर्वचन करने में समर्थ नहीं है। शब्दों में अर्थ (विषय) की अभिव्यक्ति का सामर्थ्य तो है किन्तु वह सामर्थ्य सीमित और सापेक्ष ही है, असीमित या पूर्ण और निरपेक्ष नहीं । 'प्रेम' शब्द प्रेम नामक भावना को अभिव्यक्त तो करता है किन्तु उसमें प्रेम की अनुभूति की सभी गहराईयाँ समाविष्ट नहीं हैं । प्रेम के विविध रूप हैं। प्रेम-अनुभूति की प्रगाढ़ता के अनेक स्तर हैं । अकेला प्रेम शब्द उन सबका वाचक तो नहीं हो सकता । एक प्रेमी अपनी प्रेयसी से, एक पुत्र अपनी माता से, एक भाई अपने भाई से और एक मित्र अपने मित्र से-'मैं तुमसे
रता हू-इस पदावली का कथन करता है किन्तु क्या उन सभी व्यक्तियों के सन्दर्भ में इस पदावली का एक ही अर्थ होगा? वस्ततः वे सब समान पदावली का उपयोग करते हए भी जिस भावप्रवणता को अभिव्यक्त कर रहे हैं वह भिन्न-भिन्न हो है। दो भिन्न सन्दर्भो में और दो भिन्न व्यक्तियों के लिए एक ही सन्दर्भ में एक शब्द का एक ही अर्थ नहीं हो सकता है । मात्र यही नहीं, एक ही पदावली के सन्दर्भ में वक्ता और श्रोता दोनों की भावप्रवणता और अर्थ ग्राहकता भिन्नभिन्न भी हो सकती है। हम अनेक सन्दर्भो में दूसरों के कथनों को अन्यथा ग्रहण कर लेते हैं । अर्थबोध न केवल शब्द सामर्थ्य पर निर्भर है, अपितु श्रोता की योग्यता पर भी निर्भर है । वस्तुतः अर्थबोध के लिए पहले शब्द और उसके अर्थ (विषय) में एक सम्बन्ध जोड़ लिया जाता है। बालक को जब भाषा सिखाई जाती है तो शब्द के उच्चारण के साथ उसे वस्तु भी दिखाते हैं । धीरे-धीरे बालक उनमें सम्बन्ध जोड़ लेता है और जब भी उस शब्द को सुनता है या पढ़ता है तो उसे उस अर्थ (वाच्य-विषय) का बोध हो जाता है, अतः अपने विषय का अर्थबोध करा देने की शक्ति भी मात्र शब्द में नहीं है, अपितु श्रोता या पाठक के पूर्व संस्कारों में रही हुई है। वह श्रोता या पाठक की योग्यता पर भी निर्भर होती है। यही कारण है कि अनसीखी भाषा के शब्द हमें कोई अर्थबोध नहीं दे पाते हैं। इसीलिये जैन दार्शनिक मीमांसा-दर्शन के शब्द में स्वतः अर्थबोध की सामर्थ्य का खण्डन करते हैं । अनेक प्रसंगों में वक्ता का आशय कुछ और होता है और श्रोता उसे
समझ लेता है. अतः यह मानना होगा कि शब्द और अर्थ में वाचक वाच्य' सम्बन्ध होते हुए भी वह सम्बन्ध श्रोता या पाठक सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। अन्यथा दो व्यक्तियों के द्वारा एक ही पदावली का भिन्न-भिन्न रूप में ग्रहण करना कभी सम्भव हो नहीं होता। १. जैनदर्शन, डॉ महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य-(१९७४) पृ० २७३ ।
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