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________________ अध्याय ५ वाच्यार्थ-निर्धारण के सिद्धान्त; नय और निक्षेप शब्द का वाच्यार्थ और नय शब्द अथवा कथन के सही अर्थ को समझने के लिए यह आवश्यक है कि श्रोता न केवल वक्ता के शब्दों की ओर जाये, अपितु उसके अभिप्राय को भी समझने का प्रयत्न करे। अनेक बार समान पदावली के वाक्य भी वक्ता के अभिप्राय, वक्ता की कथनशैली और तात्कालिक सन्दर्भ के आधार पर भिन्न अर्थ के सूचक हो जाते हैं। वक्ता के अभिप्राय को समझने के लिए जैन आचार्यों ने नय और निक्षेप ऐसे दो सिद्धान्त प्रस्तुत किये हैं। नय और निक्षेप के सिद्धान्तों का मूलभूत उद्देश्य यही है कि श्रोता वक्ता के द्वारा कहे गये शब्दों अथवा कथनों का सही अर्थ जान सके । नय की परिभाषा करते हए जैन आचार्यों ने कहा है कि 'वक्ता का अभिप्राय' ही नय कहा जाता है।' कथन के सम्यक अर्थ निर्धारण के लिए वक्ता के अभिप्राय को एवं तात्कालिक सन्दर्भ को ध्यान में रखना आवश्यक है। नय सिद्धान्त हमें वह पद्धति बताता है जिसके आधार पर वक्ता के आशय एवं कथन के तात्कालिक सन्दर्भ (Context) को सम्यक प्रकार से समझा जा सकता है। जैन दर्शन में नय और निक्षेप की अवधारणाएँ स्याद्वाद और सप्तभंगी के विकास के भी पूर्व की है। तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय में हमें नय एवं निक्षेप ही अवधारणाएँ स्पष्ट रूप में उपलब्ध हो जाती हैं, सूत्र जबकि वहाँ स्याद्वाद और सप्तभंगी की स्पष्ट अवधारणा अनुपस्थित है । तत्त्वार्थ के पाँचवें अध्याय का 'अर्पितानार्पिते सिद्धे' सूत्र भी मूलतः नय अर्थात् सामान्य एवं विशेष दृष्टि का ही सूचक है । आगमिक विभज्यवाद एवं दार्शनिक नयवाद की अवधारणा के आधार पर ही आगे स्याद्वाद और सप्तभंगी का विकास हुआ है। यदि हम गम्भीरतापूर्वक देखें तो जैनों के नय, निक्षेप, स्याद्वाद और सप्तभंगी-इन सभी सिद्धान्तों का सम्बन्ध भाषा-दर्शन एवं अर्थ-विज्ञान (Science of meaning) से है। नयों को अवधारणा को लेकर जैनाचार्यों ने यह प्रश्न उठाया है कि यदि वक्ता का अभिप्राय अथवा वक्ता की अभिव्यक्ति शैली ही नय है तो फिर नयों के कितने प्रकार होंगे? इस प्रश्न का उत्तर देते हए कहा गया है कि जितने वचन-पथ (कथन करने की शैलियाँ) हो सकती हैं, उतने ही नयवाद हो सकते हैं। वस्तुतः नयवाद भाषा के अर्थ-विश्लेषण का सिद्धान्त है। भाषायी अभिव्यक्ति के जितने प्रारूप हो सकते हैं उतने ही नय हो सकते हैं, फिर भी मोटे रूप से जैन दर्शन में सप्त नयों की अवधारणा मिलती है । यद्यपि इन सात नयों के अतिरिक्त निश्चय नय और व्यवहारनय तथा द्रव्याथिक नय और पर्यायार्थिक नय का भी उल्लेख जैन ग्रन्थों में हैं किन्तु ये नय मूलतः १. (अ) वक्तुरभिप्रायः नयः । स्याद्वादमञ्जरी पृ० २४३ । (ब) नयोज्ञातुरभिप्रायः ।-लघीयस्त्रयी श्लोक ५५ । २. जावइया वयणपहा । तावइया होंति नयवाया-सन्मतितर्क ३।४७ । १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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