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जैन वाक्यदर्शन : ६७ पदार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध (अन्वय) का ज्ञान होता है। तब तीसरे चरण में इस अन्वय से वाक्यार्थ का बोध होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार वाक्य से स्वतन्त्र पदों/शब्दों का अपना एक अलग अर्थ होता है और पदों के इस अर्थ के ज्ञान के आधार पर ही वाक्यार्थ का निश्चय होता है। दूसरे शब्दों में वाक्यार्थ का बोध पदों के अर्थ-बोध पर ही निर्भर करता है; पदों के अर्थ से स्वतन्त्र होकर वाक्य का कोई अर्थ नहीं होता है। अभिहितान्वयवाद के अनुसार पदों का वाक्य से एवं दूसरे पदों से निरपेक्ष या स्वतन्त्र अर्थ भी होता, किन्तु वाक्य का पदों के अर्थ से निरपेक्ष अपना कोई अर्थ नहीं होता है। वाक्यार्थ पदों के वाच्यार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध या अन्वय पर निर्भर करता है। जब तक पदों के अर्थों अर्थात् पदार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञान नहीं होता है तब तक वाक्यार्थ-बोध नहीं होता है। वाक्यार्थ के बोध के लिए दो बातें आवश्यक हैं-प्रथम पदों
थं का ज्ञान और दूसरे पदों के पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञान | पूनः पदों के पारस्परिक सम्बन्ध के भो चार आधार हैं-(१) आकांक्षा, (२) योग्यता, (३) सन्निधि और (४) तात्पर्य ।
१. आकांक्षा-प्रथम पद को सुनकर जो दूसरे पद को सुनने की जिज्ञासा मन में उत्पन्न होती है-उसे ही आकांक्षा कहा जाता है । एक पद को दूसरे पद की जो अपेक्षा रहती है वही आकांक्षा है। आकांक्षा रहित अर्थात परस्पर निरपेक्ष गाय, अश्व, पुरुष, स्त्री आदि अनेक पदों के उच्चारण से वाक्य नहीं बनता है। जैन दार्शनिकों के अनुसार भी साकांक्ष अर्थात् परस्पर सापेक्ष पद ही वाक्य की रचना करने में समर्थ होते हैं
२. योग्यता-योग्यता का तात्पर्य है कि पद से अभिहित पदार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध में कोई विरोध या बाधा नहीं होना चाहिए अर्थात् उनमें पारस्परिक सम्बन्ध की सम्भावना होना चाहिए । उदाहरणार्थ आग से सींचो इस पद समुदाय में वाक्यार्थ बोध की योग्यता नहीं है, क्योंकि आग का सींचने से कोई सम्बन्ध नहीं है । यथार्थतः असम्बन्धित या सम्बन्ध की योग्यता से रहित पदों से वाक्य नहीं बनता है।
३. सन्निधि–सन्निधि का तात्पर्य है एक ही व्यक्ति द्वारा बिना लम्बे अन्तराल के पदों का उच्चारण होना।न तो अनेक व्यक्तियों द्वारा विना अन्तराल अर्थात एक साथ बोले गये पदों से वाक्य बनते हैं और न एक ही व्यक्ति द्वारा लम्बे अन्तराल अर्थात घण्टे-घण्टे भर बाद बोले गये पदों के उच्चारण से वाक्य बनता है।
४. तात्पर्य वक्ता के अभिप्राय को तात्पर्य कहते हैं। नैयायिकों के अनुसार यह भी वाक्यार्थ के बोध की आवश्यक शर्त है। बिना वक्ता के अभिप्राय को समझे वाक्यार्थ का सम्यक निर्णय सम्भव नहीं होता है । विशेष रूप से तब जब कि वाक्य में प्रयुक्त कोई शब्द द्वयार्थक हो, जैसे सैन्धव । सैन्धव लाओ-इस वाक्य का सम्यक् अर्थ वक्ता के अभिप्रायके अभाव में नहीं जाना जा सकता है। इसी प्रकार जब कोई शब्द किसी विशिष्ट अर्थ या व्यंग के रूप में प्रयुक्त किया गया हो या फिर वाक्य में कोई पद अव्यक्त रह गया हो तो विभक्ति-प्रयोग या वक्ता का तात्पर्य ही समझने का एक आधार होता है ।
संक्षेप में, पदों को सुनने से प्रथम अनन्वित (असम्बन्धित) पदार्थ उपस्थित होते हैं फिर कांक्षा, योग्यता, सन्निधि और तात्पर्य अर्थात् विभक्ति प्रयोग के आधार पर उनके परस्पर सम्बन्ध का बोध होकर वाक्यार्थ का बोध होता है। यही अभिहितान्वयवाद है।
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