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जैन शब्ददर्शन : ५७ रखती है और इसी सादृश्यता के आधार पर हम उन सभी सादृश्य रखनेवाली वस्तुओं को एक ही शब्द का वाच्यार्थ मानते हैं ।
जैनों का यह आकृतिवाद का सिद्धान्त विटगेन्स्टाइन के चित्र सिद्धान्त ( Picture theory) से किसी सीमा तक समानता रखता है । विटगेन्स्टाइन आरम्भ में यही मानते थे कि शब्द या कथन यथार्थं जगत् के चित्र हैं और भाषा हमें इन चित्रों के माध्यम से यथार्थ जगत् सम्बन्धित करती है' । यद्यपि आगे चल कर उसने इस चित्र सिद्धान्त के स्थान पर उपयोग सिद्धान्त (Use theory) को अधिक उपयुक्त माना और यह बताया कि शब्दों का वाच्यार्थ उनके श्रवण से उद्भाषित होने वाली आकृति के स्थान पर उनके प्रयोग संदर्भ पर निर्भर करता है । शब्द का वाच्यार्थ क्या है यह इस बात पर निर्भर है कि उसे किस सन्दर्भ में और किस प्रकार प्रयुक्त किया गया है । विटगेन्स्टाइन ने अपने परवर्ती ग्रन्थ Philosophical Investigation में इस उपयोग सिद्धान्त पर अधिक बल दिया है ।
जहाँ तक जैन दार्शनिक अवधारणाओं का प्रश्न है हमें विटगेन्स्टाइन के इन दोनों ही सिद्धान्तों के पूर्व बीज उनमें उपस्थित मिलते हैं । एक ओर वे शब्द का वाच्यार्थ आकृति मानकर, विटगेन्स्टाइन के चित्र - सिद्धान्त का समर्थन करते हैं तो दूसरी ओर शब्द के वाच्यार्थ के निर्धारण
अभिसमय-परम्परा या प्रयोग सन्दर्भ को स्थान देकर विटगेन्स्टाइन के उपयोग सिद्धान्त का भी समर्थन करते हैं । वस्तुतः मेरी दृष्टि में ये दोनों अवधारणायें एक दूसरे की विरोधी नहीं हैं । शब्द को सुनकर हमारी चेतना में एक आकृति उभरती है किन्तु किस शब्द के किस प्रकार के प्रयोग से किस प्रकार की आकृति उभरेगी इसका निर्धारण अभिसमय / परम्परा या प्रयोग- सन्दर्भ ही निश्चित करेगा । वस्तुतः शब्द के वाच्यार्थ के संदर्भ में जैनों का आकृतिवाद का यह सिद्धान्त इस सम्बन्ध
प्रचलित विभिन्न मतवादों के समन्वय का एक प्रयास है। जैनों ने अपने अनेकान्तिक दृष्टि के आधार पर शब्द के वाच्यार्थ को लेकर तत्कालीन परस्पर विरोधी सिद्धान्तों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया है यही उनके शब्द दर्शन की विशेषता है ।
पद का स्वरूप – अकेले अक्षरों/वर्णों से अथवा उनके विभिन्न संयोगों से शब्दों एवं पदों की रचना होती है । यद्यपि यह स्मरण रखना चाहिए कि वर्णों का ऐसा समूह जो किसी का वाचक या द्योतक होता है शब्द / पद कहलाता है, इसके विपरीत वर्णों का ऐसा समूह जो किसी का वाचक संकेतक नहीं होता है, शब्द पद की कोटि में नहीं आता है । उदाहरण के लिए 'कलम' शब्द सार्थक है क्योंकि वह वस्तु / अर्थ का वाचक या संकेतक है अतः शब्द / पद है जबकि 'मकल' निरर्थक है क्योंकि किसी वस्तु का वाचक नहीं है अतः शब्द / पद नहीं है । जैनाचार्यों के अनुसार जिसके द्वारा अर्थ (वाच्य - विषय) को जाना जाता है अथवा जिसके द्वारा अर्थ का प्रतिपादन किया जाता है वह पद
1. (a) The proposition is a picture of reality. 4'01
(b) The waves of sound, all stand to one another is that pictorial internal relation which holds between language and the world, 4,014
—Tractatus logico-philosophicus ( ludwig Wittgens tien)
2. See — Philosophical investigation 139 Page 54,
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