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________________ ४० : भाषादर्शन (२) नैपातिक — जो शब्द सातों विभक्तियों, तीनों लिङ्गों और तीनों वचनों में एक ही रूप रहें, वे नैपातिक कहलाते हैं । अव्यय भी इसी के अन्तर्गत आते हैं । जैसे : खलु । (३) आख्यातिक - क्रियापद (धातुएँ ) आख्यातिक कहलाते हैं । जैसे दौड़ना (धावति) आदि । ( ४ ) औपसर्गिक - जिनके संयोग से शब्द के अर्थ में परिवर्तन होता है, वे उपसर्ग कहलाते हैं । जैसे : प्र, सम, नि, वि, अधि आदि । इनसे निर्मित पद औपसर्गिक होते हैं। यथा-विज्ञान, अधिवक्ता आदि । (५) मिश्र - उपसर्ग, धातु, कृदन्त आदि से मिलकर जो शब्द बनता वह मिश्र कहलाता है । जैसे : संयत 1 अनुयोगद्वारसूत्र के अतिरिक्त पदों का यहो पञ्चविध वर्गीकरण हमें विशेषावश्यक भाष्य में भी मिलता है । षड्विधनाम - आत्मा और कर्म के संयोग के कारण आत्मा की जो छः विभिन्न अवस्थाएँ बनती हैं उन्हें अनुयोगद्वारसूत्र में षड्विधनाम कहा गया है । ये अवस्थाएँ निम्न हैं औदयिक - कर्म विशेष का उदय होने पर जो अवस्था प्राप्त होती है, वह औदयिक नाम है । जैसे : मनुष्य, देव । औपशमिक - कर्म विशेष का उपशमन होने पर जो अवस्था प्राप्त होती है, वह औपशमिक है । यथा - उपशान्त मोह | क्षायिक - कर्म विशेष के क्षीण हो जाने पर जो अवस्था प्राप्त होती है, वह क्षायिक है । जैसे : क्षीणमोह | क्षयोपशमिक — कर्म विशेष का आंशिक क्षय और आंशिक उपशम होने पर जो अवस्था प्राप्त होती है, वह क्षयोपशमिक है । पारिणामिक - पारिणामिक नाम परिवर्तन के सूचक हैं। ये दो प्रकार के हैं- सादि और अनादि । वस्तु विशेष में काल आदि के कारण जो परिवर्तन होते हैं, वे सादि पारिणामिक हैं । इस आधार पर हम कहते हैं - पुराना गुड़, जीर्ण वस्त्र आदि । पुद्गलास्तिकाय आदि द्रव्यों में जो सतत परिवर्तन की धारा चल रही है वह अनादि पारिणामिक दशा है । सन्निपातिक — उपर्युक्त पाँचों अवस्थाओं के विभिन्न संयोगों से जो अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं, वे सन्निपातिक हैं ! सप्तविधनाम - अनुयोगद्वारसूत्र में नामों का जो सप्तविध वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है, उसमें षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत एवं निषाद — इन सप्तस्वरों का उल्लेख है । संगीत के ये स्वर भावाभिव्यक्ति के माध्यम हैं और इस रूप में वे भाषा से भी संबंधित हैं । ग्रंथकार ने इन स्वरों के संदर्भ में इनके उच्चारण स्थान, फल, ग्राम आदि की भी विस्तृत चर्चा की है। किन्तु भाषा दर्शन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं होने के कारण हम यहाँ इसकी चर्चा नहीं कर रहे हैं । अष्टविषनाम - अनुयोगद्वारसूत्र में अष्टविध नाम की चर्चा वस्तुतः आठ विभक्तियों के आधार पर की गयी है । संस्कृत एवं प्राकृत व्याकरण में आठों विभक्तियों की विस्तृत चर्चा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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