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________________ भाषा और लिपि : २७ तुर्की, उडिया, मालवी, लाटलिपि, सिन्धवोलिपि, पारसीलिपि, नागरीलिपि आदि ऐसी लिपियाँ हैं, जिनका स्वतन्त्र लिपि के रूप में हमें उल्लेख उपलब्ध हो जाता है और जिनमें से अनेक आज भी प्रचलित हैं । यद्यपि लिपियों की इस चर्चा का जैन भाषा दर्शन से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, किन्तु इतना तो अवश्य हो है कि लिपि भाषा को सांकेतिक अभिव्यक्ति सामर्थ्य की ही सूचक है । जैनों जिन तीन प्रकार के अक्षरों का उल्लेख किया है उनमें संज्ञा - अक्षर का सम्बन्ध लिपि से है तो व्यञ्जन अक्षर का सम्बन्ध ध्वनि से है जबकि लब्धि- अक्षर का सम्बन्ध इन्हीं लिखित या उच्चरित संकेतों के आधार पर होने वाले अर्थबोध -सामर्थ्य से है । भाषा का मूल उत्स तो अर्थबोध ही है। भाषा लेखविधान या ध्वनिसंकेतों के माध्यम से अपना अर्थबोध देती है । लिपि-संकेत और ध्वनि संकेत वस्तुतः अर्थबोध कराने के साधन हैं और साधन के रूप में ही इनका महत्त्व है । इन लिपि संकेतों या ध्वनि संकेतों के माध्यम से शब्द, पद और वाक्य बनते हैं जो कि श्रोता या पाठक को वक्ता या लेखक की भावाभिव्यक्ति के समझने में सहायक होते हैं । १. विशेषरूप से द्रष्टव्य -- (अ) समवायांग १८ वां समवाय (ब) प्रज्ञापना प्रथमपद ७१ (स) विशेषावश्यक भाष्य (मल्लधारगच्छीय हेमचन्द्र की टीका) गाथा ४६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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