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१८ : भाषादर्शन अनक्षरश्रुत ।' स्वर, व्यंजन आदि वर्णों से युक्त ध्वनि-संकेत एवं लिपि-संकेत अक्षरश्रुत के अन्तर्गत आते हैं, जबकि स्वर, व्यंजन आदि वर्गों से रहित श्रयमान अस्पष्ट ध्वनियाँ तथा दृश्य सांकेतिक चेष्टाएँ अनक्षरश्रुत के अन्तर्गत आती हैं। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि जैनाचार्यों ने शब्द-बोध को भी दो भागों में विभाजित किया है-१ भाषात्मक और २ अभाषात्मक । वे अक्षरात्मक/वर्णात्मक शब्द-ध्वनियाँ, जो श्रोता को अर्थबोध कराने में समर्थ हों, अनिवार्यतः भाषात्मक होकर अक्षरश्रुत के अन्तर्गत आती हैं। किन्तु अक्षरश्रुत इससे व्यापक भी है, क्योंकि इसमें लिपि संकेत से होनेवाला ज्ञान भी समाहित है। इस प्रकार अक्षरश्रुत दृश्य और श्रव्य दोनों प्रकार का है और ये दोनों ही प्रकार भाषात्मक हैं।' जहाँतक स्वर-व्यंजनादि से रहित शब्द-ध्वनि का प्रश्न है, वह अनक्षरश्रत रूप भी हो सकती है और उससे भिन्न भी हो सकती है। अभाषात्मक अर्थात् स्वरव्यंजनादि वर्गों से रहित ध्वनि, यदि भावाभिव्यक्ति में समर्थ है तो अनक्षरश्रुत रूप है और यदि भावाभिव्यक्ति में समर्थ नहीं है, तो श्रतरूप/भाषात्मक नहीं है। अतः अनक्षरात्मक शब्द ध्वनि अनक्षर श्रुतरूप भी हो सकती है और अश्रृतरूप (अर्थात् मतिज्ञानरूप) भी हो सकती है। क्योंकि समस्त श्रुतज्ञान (भाषायी ज्ञान) अनिवार्यतया मतिज्ञान (इन्द्रिय-सम्वेदन) रूप होता है, किन्तु समस्त मतिज्ञान (इन्द्रियसम्वेदन) श्रुतज्ञान रूप (भाषात्मक) हो यह आवश्यक नहीं है।
___ अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत दोनों ही भाषा के प्रकार हैं। स्वर-व्यंजन आदि से युक्त उच्चरित या लिखित भाषा तो अक्षरश्रुत है ही, स्वर-व्यंजन आदि से रहित ध्वनि संकेत और अन्य प्रकार के संकेत भी, जो भावाभिव्यक्ति में समर्थ होते हैं, अनक्षर श्रुत के अन्तर्गत आ जाते हैं। आधुनिक भाषावैज्ञानिकों ने भी भाषा के इन दोनों रूपों को स्वीकार किया है। भाषा की म परिभाषा की दृष्टि से अनक्षरश्रत भी भाषा का ही एक रूप है तथा वह भी श्रव्य और श्रव्येतर दोनों ही प्रकार का है । जैनों के अनुसार सांकेतिक ध्वनि, सांकेतिक चेष्टाएँ और सांकेतिक चिह्न (लिपि) और उनके आधार पर होनेवाला अर्थबोध दोनों ही क्रमशः द्रव्यश्रुत ओर भावश्रुत के रूप में भाषा के ही अंग हैं। इस प्रकार भाषा/श्रुत एक व्यापक अवधारणा है । यद्यपि श्वे० परम्परा के आचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण, हरिभद्र एवं मलयगिरि अश्रूयमान शारीरिक चेष्टाओं को अनक्षरश्रुत में समाविष्ट नहीं करते हैं। उनके अनुसार जो सुनने योग्य है वही श्रुत है, अन्य नहीं; अर्थात् जो चेष्टायें सुनाई नहीं देतीं, वे श्रत नहीं हैं। किन्तु इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा के यह माना है कि सभी प्रकार का मतिज्ञान श्रुतज्ञान का कारण है, अतः श्रूयमान और दृश्यमान दोनों ही प्रकार के संकेतों से होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान के अन्तर्गत आता है ।" मुझे भी यह। दूसरा १. (अ) श्रुतज्ञानस्य अनक्षरात्मकाक्षरात्मको द्वौ भेदौ-जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश भाग ४ पृ० ५९ ।
(ब) सुत्तं पुण उभयं पि अणक्खरक्खरओ-विशेषावश्यक भाष्य १७० । २. शब्दो द्विविधो भाषालक्षणो विपरीतश्चेति । भाषालक्षणो द्विविधः साक्षरोऽनक्षरश्चेति ।
-सर्वार्थसिद्धि ५।२४।२९४।१२ उद्धृत जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश भाग ३ पृ० २३७ । ३. भणओ सुणओ व सुयं तं जमिह सुयाणुसारि विण्णाणं-विशेषावश्यकभाष्य १२० । ४. देखें-(अ) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग १ पृ० १४ ।
(ब) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ११६ से १५३ तक । ५. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश भाग ४ पृ० ६१ ।।
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