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विषयप्रवेश : १५ सकता । जैनियों के अनुसार भाषा-अर्थसंकेत और अर्थबोध-जीव के प्रयत्नों का ही परिणाम है और ये प्रयत्न देश, काल और परिस्थिति के अनेक तथ्यों से प्रभावित होते हैं। जैन-दर्शन अनेकान्तवाद का समर्थक है और इसलिए एकान्तरूप से किसी एक अवधारणा को अन्तिम मानकर नहीं चलता। निष्कर्ष रूप में भाषा ईश्वर-सष्ट न होकर अभिसमय या परम्परा से निर्मित होती है। उसके अनुसार भाषा कोई ऐसा तथ्य नहीं है, जो बना बनाया (रेडीमेड) मनुष्य को मिल गया हो। भाषा बनती रहती है, वह स्थित नहीं, अपितु सतत रूप से गत्यात्मक (डायनमिक) है । वह किसी एक व्यक्ति की, चाहे वह ईश्वर हो या तीर्थंकर हो, रचना नहीं है, अपितु कालक्रम में परम्परा से विकसित होती है। भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यही एक ऐसा सिद्धान्त है, जो जैनों को मान्य हो सकता है। विचार और भाषा:
यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि क्या भाषा के बिना विचार या चिन्तन सम्भव है। सामान्यतया यही माना गया है कि चिन्तन के लिए भाषा या शब्द का व्यवहार आवश्यक है। कोई भी चिन्तन बिना भाषा या शब्द व्यवहार के सम्भव नहीं है। जैन दर्शन में, भाषा और विचार के पारस्परिक सम्बन्ध के इस प्रश्न को, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के पारस्परिक सम्बन्ध के रूप में उठाया गया है। यद्यपि सभी जैन आचार्यों ने इस बात को एक मत से स्वीकार किया है कि श्रुतज्ञान (भाषायी ज्ञान) मतिज्ञान (अर्थात् इन्द्रिय बोध) के बिना सम्भव नहीं है । श्रुत मतिपूर्वक है, इस बात को तत्त्वार्थ एवं अन्य ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है। वस्तुतः चिन्तन या विमर्श के पूर्व इन्द्रिय सम्वेदन आवश्यक है। इन्द्रिय-बोध ही वह सामग्री प्रस्तुत करता है, जिस पर चिन्तन या मनन होता है
और जिसका सम्प्रेषण दूसरों के प्रति किया जाता है । अतः जैनों की यह अवधारणा समुचित ही है कि मतिज्ञान (इन्द्रिय बोध) पूर्वक ही श्रुतज्ञान (भाषा-ज्ञान) होता है। विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि मतिज्ञान ही श्रुतज्ञान का पोषण करता है, उसे पूर्णता प्रदान करता है । क्योंकि मतिज्ञान से श्रत का पनरावर्तन होता है। मतिज्ञान से (सनकर या पढकर) ही श्रतज्ञान (भाषायी ज्ञान प्राप्त किया जाता है और मति (विचार या चिन्तन) पूर्वक ही श्रुतज्ञान दूसरों को प्रदान किया जाता है। विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान (अनुभवजन्य ज्ञान) और श्रुतज्ञान (भाषाजन्य ज्ञान) के सम्बन्ध को लेकर गम्भीर चर्चा उपस्थित की गई है। विशेषावश्यकभाष्यकार भी इस बात को स्वीकार करता है कि मतिज्ञान पूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है, किन्तु मतिज्ञान श्रुतज्ञान पूर्वक नहीं होता है। यद्यपि मल्लधारी आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी विशेषावश्यक वृत्ति में इतना अवश्य स्वीकार कर लिया है कि मतिज्ञान भी द्रव्यश्रुत पूर्वक होता है । वस्तुतः इस चर्चा में उतरने के पूर्व हमें यह समझ लेना होगा कि श्रुतज्ञान में मतिज्ञान का और मतिज्ञान में श्रुतज्ञान का अवदान किस प्रकार से होता है। जैन आचार्यों ने मतिज्ञान के अन्तर्गत इन्द्रिय संवेदन और मानसिक संवेदनों के साथ चिन्तन, विचार और तर्क को भी समाहित किया है। यहीं यह प्रश्न होता है कि चिन्तन, मननादि क्या बिना भाषायी व्यवहार के सम्भव हैं ? और यदि वे बिना भाषा के सम्भव नहीं हैं तो फिर मतिज्ञान के जो
१. श्रुतं मतिपूर्व...."। तत्त्वार्थ, ११२० । २. मइपुव्वं सुय मुत्तं न मई सुयपुब्विया विसेसोऽयं ।
पुवं पूरण-पालण भावा ओ जं मई तस्स ॥
-विशेषावश्यकभाष्य, १०५ ।
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