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१० : जैन भाषा-दर्शन वाद और विभज्यवाद की पद्धति को अपनाया। महावीर ने भी किसी सीमा तक इन दोनों पद्धतियों को स्वीकार किया। फिर भी परवर्ती बौद्ध दार्शनिकों की दृष्टि में अव्याकृतवाद साध्य
और विभज्यवाद (विश्लेषणवाद) साधन बन गया, जिससे अन्त में शून्यवाद का विकास हआ। जबकि परवर्ती जैन दार्शनिकों ने इसी विभज्यवाद (विश्लेषणवाद) के आधार पर स्याद्वाद और सप्तभंगी का विकास किया, जिसमें अव्याकृतवाद अवक्तव्य-भंग के रूप में सप्तभंगी का एक भंग मात्र रह गया। साथ ही उस अवक्तव्यता को भी सापेक्ष रूप में ही स्वीकार किया गया। मात्र यही नहीं, जैन आचार्यों ने एकांशवादी पद्धति को अपने नय सिद्धान्त के साथ समायोजित कर उसे भी स्याद्वाद के अधीन कर लिया। जैनों के स्याद्वाद और नयवाद में किस प्रकार समकालीन भाषा-विश्लेषणवाद के तत्त्व उपस्थित हैं, इसकी चर्चा तो यथाप्रसंग हम करेंगे ही, यहाँ इस प्रास्ताविक कथन में तो मात्र इतना ही बताना चाहते हैं कि समकालीन भाषा विश्लेषण की दार्शनिक पद्धति के बीज विभज्यवाद के रूप में किस प्रकार ईसा की ६ ठो शताब्दी पूर्व भी जैन और बौद्ध परम्पराओं में उपस्थित थे। विभज्यवाद का शाब्दिक अर्थ भी विश्लेषणवाद (Analytic-Method) ही है । वस्तुतः जैन और बौद्ध परम्पराओं में स्वीकृत विभज्यवाद जिसका परवर्ती विकास क्रमशः स्याद्वाद और शन्यवाद में हुआ, मूलतः विश्लेषण की पद्धति है और इस रूप में वह समकालीन पाश्चात्य भाषा-विश्लेषण का ही पूर्वरूप या अग्रज है।
विभज्यवाद को स्पष्ट करने के लिए यहाँ हम कुछ दार्शनिक और व्यावहारिक प्रश्नों को लेंगे और देखेंगे कि विभज्यवादी उसका विश्लेषण किस प्रकार करता है। मान लीजिये-किसी ने प्रश्न किया कि शरीर और चेतना (जीव) भिन्न-भिन्न हैं या अभिन्न हैं ? विभज्यवादी इसका सीधा उत्तर न देकर पहले तो यह जानना चाहेगा कि भिन्नता अथवा अभिन्नता से प्रश्नकतो का क्या तात्पय है ? दूसरे यह कि यह भिन्नता और अभिन्नता भी किस सन्दर्भ में पूछी जा रही है। पुनः भिन्नता से उसका तात्पर्य तथ्यात्मक भिन्नता से है अथवा वैचारिक या प्रत्ययात्मक भिन्नता से है ? और यह भिन्नता भी आनुभविक जगत के सन्दर्भ में या तात्त्विक सन्दर्भ में पूछी जा रही है। क्योंकि भिन्नता शब्द के प्रत्येक तात्पर्य के आधार पर और प्रत्येक सन्दर्भ में इस प्रश्न के उत्तर अलग-अलग हो सकते हैं । जैसे शरीर और चेतना (आत्मा) को विचार के क्षेत्र में पृथक्-पृथक् किया जा सकता है किन्तु तथ्यात्मक क्षेत्र में हम उन्हें एक दूसरे से पृथक् नहीं कर सकते । वे चिन्तन के क्षेत्र में भिन्न माने जा सकते हैं, लेकिन जागतिक अनुभव के क्षेत्र में तो अभिन्न हैं, क्योंकि जगत् में शरीर से पृथक् चेतना कहीं उपलब्ध नहीं होती है । पुनः मृत व्यक्ति के सन्दर्भ में शरीर को चेतना से पृथक् माना जा सकता है, किन्तु जीवित व्यक्ति के सन्दर्भ में उन्हें एक दूसरे से पृथक् नहीं माना जा सकता । अतः महावीर और परवर्ती जैन आचार्यों ने कहा था कि जीव और शरीर भिन्न भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं। इसी प्रकार व्यावहारिक जीवन के क्षेत्र में जब यह पूछा जाये कि सोना
एकंसवचनं एकं, विभज्जवचनापरं ।
ततियं पटिपुच्छेय्य, चतुत्थं पन ठापये ।।
-अङ्गत्तरनिकाय, Vol. II पृ० ४८ (चतुक्कनिपाती रोहितस्स वग्गो पञ्ह ब्याकरणसुत्तं) १. आया, भन्ते ! काये, अन्ने काये ? गोयमा ! आया वि काये अन्ने वि काये। -भगवती, १३.७
तुलनीय-मज्झिमनिकाय, Vol. II पृ० १७५-१५७
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