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________________ भाषा और सत्य : ९७ ४. पच्छनीय यह रास्ता कहाँ जाता है ? आप मुझे इस पद्य का अर्थ बतायेंगे ? इस प्रकार के कथनों की भाषा पृच्छनीय कही जाती है। चूंकि यह भाषा भी किसी तथ्य का विधि-निषेध नहीं करती है, अतः इसका सत्यापन सम्भव नहीं है। ५. प्रज्ञापनीय अर्थात् उपदेशात्मक भाषा जैसे चोरी नहीं करना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए आदि । चूँकि इस प्रकार के कथन भी तथ्यात्मक विवरण न होकर उपदेशात्मक होते हैं, अतः ये सत्य-असत्य की कोटि में नहीं आते । आधुनिक भाषा-विश्लेषणवादी दार्शनिक नैतिक कथनों का अन्तिम विश्लेषण प्रज्ञापनीय भाषा के रूप में ही करते हैं और इसलिए इसे सत्यापनीय नहीं मानते हैं। उनके अनुसार वे नैतिक प्रकथन जो बाह्य रूप से तो तथ्यात्मक प्रतीत होते हैं, लेकिन वस्तुतः तथ्यात्मक नहीं होते जैसेचोरी करना बुरा है, सत्यापनीय नहीं है। उनके अनुसार इस प्रकार के कथनों का अर्थ केवल इतना ही है कि तुम्हें चोरी नहीं करना चाहिए या चोरी के कार्य को हम पसन्द नहीं करते हैं। यह कितना सुखद आश्चर्य है कि जो बात आज के भाषा-विश्लेषणदार्शनिक प्रस्तुत कर रहे हैं उसे दो सहस्र वर्ष पूर्व जेन विचारक सूत्र रूप में प्रस्तुत कर चुके हैं। आज्ञापनीय और प्रज्ञापनीय भाषा को असत्य-अमृषा कहकर उन्होंने आधुनिक भाषा-विश्लेषण की ओर संकेत किया है। ६. प्रत्याख्यानीय किसी प्रार्थी की माँग को अस्वीकार करना प्रत्याख्यानीय भाषा है। जैसे तुम्हें यहां नौकरी नहीं मिलेगी अथवा तुम्हें भिक्षा नहीं दी जा सकती । यह भाषा भी सत्यापनीय नहीं है। ७. इच्छानुकूलिका किसी कार्य में अपनी अनुमति देना अथवा किसी कार्य के प्रति अपनी पसन्दगी स्पष्ट करना इच्छानुकूलिका भाषा है । तुम्हें यह कार्य करना ही चाहिए; इस प्रकार के कार्य को मैं पसंद करता हूँ। मुझे झूठ बोलना पसन्द नहीं है आदि । आधुनिक नीतिशास्त्र का संवेगवादी सिद्धान्त भी नैतिक कथनों को अभिरुचि या पसन्दगी का ही एक रूप बताता है और उसे सत्यापनीय नहीं मानता है। ८. अनभिग्रहीता ___ ऐसा कथन, जिसमें वक्ता अपनो न तो सहमति प्रदान करता है और न असहमति, अनभिग्रहीत कहलाता है। जैसे 'जो पसन्द हो वह कार्य करो', 'जो तुम्हें सुखप्रद हो वैसा करो' आदि । ऐसे कथन भी सत्यापनीय नहीं होते । इसलिए इन्हें भी असत्य-अमृषा कहा गया है। ९. अभिग्रहीता किसी दूसरे व्यक्ति के कथन को अनुमोदित करना अभिग्रहीत कथन है। जैसे-हाँ, तुम्हें ऐसा ही करना चाहिए । ऐसे कथन भी सत्य-असत्य की कोटि में नहीं आते हैं। १०. संदेहकारिणी जो कथन द्वयर्थक हो या जिनका अर्थ स्पष्ट न हो संदेहात्मक कहे जाते हैं। जैसे-सैन्धव अच्छा होता है-यहाँ वक्ता का तात्पर्य स्पष्ट नहीं है कि सैन्धव से उसे नमक अभिप्रेत है या सिन्धु देश का घोड़ा । अतः ऐसे कथनों को भी न सत्य कहा जा सकता है और न असत्य ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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