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________________ भाषा और सत्य : ९९ में विभाजित किया गया है। पर्याप्त भाषा वह है जिसके कथन को सत्यता या असत्यता का निश्चय किया जा सकता है और अपर्याप्त भाषा वह है जिसके कथन की सत्यता और असत्यता का निश्चय नहीं किया जा सकता।२ सम्भावित और सत्यापन के अयोग्य कथन अपर्याप्त भाषा का लक्षण है। तुलनात्मक दृष्टि से पाश्चात्य परंपरा की सत्यापनीय भाषा, गणितीय भाषा, एवं परिभाषाएँ पर्याप्त भाषा के समतुल्य मानी जा सकती हैं जबकि शेष भाषा-व्यवहार अपर्याप्त या अपूर्ण भाषा का ही सूचक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सर्वप्रथम उन्होंने पर्याप्त भाषा की सत्य और असत्य ऐसी दो कोटियाँ स्थापित की। इसी प्रकार अपर्याप्त भाषा की भी दो कोटियाँ स्थापित की-(१) सत्य-मृषा (मिश्र) और (२) असत्य-अमृषा । सत्य भाषा-वे कथन जो वस्तु के यथार्थ स्वरूप के प्रतिपादक हैं, सत्य कहलाते हैं । कथन और तथ्य (वाच्यार्थ) को संवादिता या अनुरूपता ही सत्य की मूलभूत कसौटी है । जैन दार्शनिकों ने पाश्चात्य अनुभववादियों के समान ही यह स्वीकार किया है कि जो कथन तथ्य का जितना अधिक संवादी होगा वह उतना ही अधिक सत्य माना जायेगा। यद्यपि जैन दार्शनिक कथन की सत्यता को उसको वस्तुगत सत्यापनीयता तक ही सीमित नहीं करते हैं। वे यह भी मानते हैं कि आनुभविक सत्यापनीयता के अतिरिक्त भी कथनों में सत्यता हो सकतो है । जो कथन ऐन्द्रिक अनुभवों पर निर्भर न होकर अपरोक्षानुभूति के विषय होते हैं उनकी सत्यता का निश्चय तो स्वयं अपरोक्षानुभूति पर ही निर्भर होता है । अपरोक्षानुभव के ऐसे अनेक स्तर हैं जिनकी तथ्यात्मक संगति खोज पाना कठिन है। जैन दार्शनिकों ने सत्य को अनेक रूपों में देखा है । स्थानांग', प्रश्नव्याकरण, प्रज्ञापना" और भगवती आराधना में सत्य के दस भेद बताये गये हैं :-१. जनपद-सत्य, २ सम्मत-सत्य, ३, स्थापना-सत्य, ४. नाम-सत्य, ५. रूप-सत्य, ६. प्रतीति-सत्य, ७. व्यवहार-सत्य, ८. १, योग-सत्य, १०. उपमा-सत्य । अकलंक ने सम्मत-सत्य, भाव-सत्य और उपमा-सत्य १. कतिविहा णं भंते ! भासा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा भासा पन्नत्ता, तंजहा-पज्जत्तिया य अपज्जत्तिया य। -प्रज्ञापनासूत्र; भाषापद, १५ । २. पज्जत्तिया णं भंते ! भासा कतिविहा पन्नत्ता ? गोयमा ! विहा पन्नत्ता, तंजहा-सच्चा मोसा य । अपज्जत्तिया णं भंते ! कतिविहा भासा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सच्चामोसा असच्चामोसा य । -वही, १६-१९। ३. जणवय सम्मय ठवणा, णामे रूवे पडुच्चसच्चे य। ववहार भाव जोगे दसमे ओवम्मसच्चे य ।। -स्थानांगसूत्र, दशम स्थान, ८९ ४. तं सच्चं भगवं तित्थकरसुभासियं दसविहं । -प्रश्नव्याकरणसूत्र, सातवां अध्याय, २४ ५. सच्चा णं भंते । भासा पज्जत्तिया कतिविहा पन्नत्ता? गोयमा ! दसविहा पन्नत्ता। तं जहा-जणवय सच्चा १. सम्सयसच्चा २. ठवणसच्चा ३. नामसच्चा ४. स्वसच्चा ५. पडुच्चसच्चा ६. ववहारसच्चा ७. भावसच्चा ८. जोगसच्चा ९. ओवम्मसच्चा १०. -प्रज्ञापनासूत्र; भाषापद, १७ ६. जणवदसमदिठवणा णामे रूवे पडुच्चववहारे । सम्भावणववहारे भावेणोपम्मसच्चेण ।। -भगवतीयाराधना, ११८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002763
Book TitleJain Bhasha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1986
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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