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भाषा और सत्य : ८९ है । वस्तुतः हमने व्यक्तियों, वस्तुओं, तथ्यों, घटनाओं, क्रियाओं एवं भावनाओं के लिए शब्द-प्रतीक बना लिए हैं। इन्हीं शब्द प्रतीकों एवं ध्वनि संकेतों के माध्यम से हम अपने विचारों, अनुभूतियों और भावनाओं का सम्प्रेषण करते हैं।
यहाँ मूल प्रश्न है कि हमारी इस भाषायी अभिव्यक्ति को हम किस सीमा तक सत्यता का आनुषंगिक मान सकते हैं।
आधुनिक पाश्चात्य दर्शन में भाषा और उसकी सत्यता के प्रश्न को लेकर एक पूरा दार्शनिक सम्प्रदाय ही बन गया है। भाषा और सत्य का सम्बन्ध आज के युग का एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक प्रश्न है। किसी कथन की सत्यता या असत्यता को निर्धारित करने का आधार आज सत्यापन का सिद्धान्त है। समकालीन दार्शनिकों की यह मान्यता है कि जिन कथनों का सत्यापन या मिथ्यापन सम्भव है वे ही कथन सत्य या असत्य हो सकते हैं। शेष कथनों का सत्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है । ए० जे० एयर ने अपनी पुस्तक 'लैंग्वेज, ट्र,थ ऐंड लाजिक' में इस समस्या को उठाया है। इस सन्दर्भ में सबसे पहले हमें इस बात पर विचार कर लेना होगा कि कथन के सत्यापन से हमारा क्या तात्पर्य है। समकालीन भाषा-विश्लेषणवादियों के अनुसार कोई भी कथन जब इन्द्रियानुभव के आधार पर पुष्ट या अपुष्ट किया जा सकता है तब ही वह सत्यापनीय कहलाता है। जिन कथनों को हम इन्द्रियानुभव के आधार पर पुष्ट या खण्डित नहीं कर सकते, वे असत्यापनीय होते हैं। किन्तु इन दोनों प्रकार के कथनों के बीच कुछ ऐसे भी कथन होते हैं जो न सत्यापनीय होते हैं और न असत्यापनीय । उदाहरण के लिए-मंगल ग्रह में जीव के पाये जाने की संभावना है। यद्यपि यह कथन वर्तमान में सत्यापनीय नहीं है, किन्तु यह सम्भव है कि इसे भविष्य में पुष्ट या खण्डित किया जा सकता है। अतः वर्तमान में यह न तो सत्यापनोय है और न तो असत्यापनीय । किन्तु, सम्भावना की दृष्टि से इसे सत्यापनीय माना जा सकता है। जैन ग्रन्थ भगवती-आराधना में सत्य का एक रूप सम्भावना-सत्य माना गया है।'
वस्ततःकौन-सा कथन सत्य है इसका निर्णय इसी बात पर निर्भर करता है कि उसका सत्यापन (Verification) सम्भव है या नहीं है । वस्तुतः जिसे हम सत्यापन या मिथ्यापन कहते हैं वह भी उस अभिकथन और उसमें वर्णित तथ्य की संवादिता या अनुरूपता पर निर्भर करता है, जिसे जेन परम्परा में परतः प्रामाण्य कहा जाता है। सामान्यतया यह माना जाता है कि कोई भी कथन तथ्य का संवादी (अनुरूप) होगा तो वह सत्य होगा और विसंवादी (विपरीत) होगा तो वह असत्य होगा। यद्यपि यह भी स्पष्ट है कि कोई भी कथन किसी तथ्य को समग्र अभिव्यक्ति नहीं दे पातो है । जैन दार्शनिकों ने स्पष्ट रूप से यह माना था कि प्रत्येक कथन वस्तु-तत्त्व के सम्बन्ध में हमें आंशिक जानकारी ही प्रस्तुत करता है, अतः कोई भी कथन वस्तु के सन्दर्भ में आंशिक सत्य का ही प्रतिपादक होगा । यहाँ भाषा की अभिव्यक्ति-सामर्थ्य की सीमितता को भी हमें ध्यान में रखना होगा। साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि भाषा तथ्य नहीं। वह तथ्य की संकेतक मात्र है। उसको इस सांकेतिकता के सन्दर्भ में ही उसकी सत्यता या असत्यता का विचार किया जा सकता है । जो भाषा अपने तथ्य को जितना अधिक स्पष्ट रूप से संकेतित कर सकती है वह उतनी ही
१. संभावण ववहारे भावणोपम्मसच्चेण ।-भगवती आराधना ११८७ ।
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