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जिनेन्द्र भाषित बात कभी अन्यथा नहीं हो सकती है, सो मैं निश्चय से आगे तीर्थङ्कर होऊंगा । यदि कदाचित् कनकाचल (सुमेरु) चलायमान होजाय, ज्योतिषगण नभस्तल छोड़ दें, अग्नि-शिखा शीतल हो जाय, सर्प विष - रहित हो जायें, ये सभी अनहोनी बातें भले ही सम्भव हो जों, पर जिन भगवान् का कथन कभी अन्यथा नहीं हो सकता । फिर मैं क्यों उपवास करके शरीर और इन्द्रियों को सुखाऊं, क्यों कायोत्सर्ग करूं, क्यों वन में रहूँ क्यों केशों का लाँच करूं, क्यों भूख-प्यास की वेदना सहूँ, क्यों नग्न होकर विचरुं, और क्यों बिना शरीर सन्ताप के महानदियों में रमू ? जिस समय जो होने वाला शरीर सन्ताप के महानदियों में रमू ? जिस समय जो होने वाला है वह होकर के ही रहेगा । उदय होते सूर्य को कौन रोक सकता है ? जैसे फल समय आने पर स्वयं पक जाता है, वैसे ही समय आने पर जीव भी स्वयं सिद्ध हो जायगा । ऐसा कह कर मरीचि समवशरण से बाहिर निकल कर कुमतों का प्रचार करने लगा और कहने लगा कि न कोई कर्ता है, न कोई कर्म ही है और न कोई भोक्ता ही है। जीव कभी भी कर्मों से स्पृष्ट नहीं होता है, वह तो सदा ही निर्लेप परमात्मा बना हुआ रहता है। इस प्रकार मरीचि ने सांख्य मत की स्थापना की।
(२) रयधू ते त्रिपृष्ठ के भव का वर्णन करते समय युद्ध का और उसके नरक में पहुंचने पर यहां के
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दुःखों का बहुत विस्तार से वर्णन किया है ।
(३) मृग घात करते सिंह को देख कर चारण मुनि युगल उसे सम्बोधन करते हुए कहते हैं
जग्गु जग्गु रे केत्तर सोवहि, तठ पुण्णे मुणि आयड जोवहि । एक्क जि कोडाकोडी सायर, गयउ भमंते कालु जि भायर ॥
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(पत्र २५) अर्थात्- हे भाई, जाग जाग । कितने समय तक और सोवेगा ? पूरा एक कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण काल तुझे परिभ्रमण करते हुए हो गया है । आज तेरे पुण्य से यह मुनि-युगल आये हैं, सो देखो और आत्म- हित में लगो । इस स्थल पर रवधू ने चारण-मुनि के द्वारा सम्यक्त्व की महिमा का विस्तृत वर्णन करावा है और कहा है कि अब हे मृगराज, इस हिंसक प्रवृत्ति को छोड़ कर सम्यक्तव और व्रत को ग्रहण कर ।
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(४) भ. महावीर का जीव स्वर्ग से अवतरित होते हुए संसार के स्वरूप का विचार कर परम वैराग्य भावों की वृद्धि
के साथ त्रिशला देवी के गर्भ में आया, इसका बहुत ही मार्मिक चित्रण रयधू ने किया है। (पत्र ३) (५) जन्माभिषेक के समय सौधर्म इन्द्र दिग्पालों को पांडुक शिला के सर्व ओर प्रदक्षिणा क्रम से अपनी-अपनी दिशा में बैठा कर कहता है:
णिय यि दिस रक्खहु सावहाण, मा को वि विसठ सुरु मण्झठाण ।
(पत्र ३६ A)
अर्थात् - हे दिग्पालो, तुम लोग सावधान होकर अपनी-अपनी दिशा का संरक्षण करो और इस मध्यवर्ती क्षेत्र में किसी को भी प्रवेश मत करने दो ।
इस उक्त उद्देश्य को भूल कर लोग आज पंचामृताभिषेक के समय दिग्पालों का आह्वानन करके उनकी पूजा करने लगे हैं ।
(६) रयधू ने भी जन्माभिषेक के समय सुमेरु के कम्पित होने का उल्लेख किया है। साथ ही अभिषेक से पूर्व कलशों में भरे जल को इन्द्र के द्वारा मंत्र बोल कर पवित्र किये जाने का भी वर्णन किया है ।
( पत्र ३६ B )
इस प्रकरण में गन्धोदक के माहात्म्य का भी सुन्दर एवं प्रभावक वर्णन किया है ( पत्र ३७ A)
(७) जन्माभिषेक से लौटने पर इन्द्राणी तो भगवान् को ले जाकर माता को सौंपती है और इन्द्र राजसभा में जाकर
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सिद्धार्थ को जन्माभिषेक के समाचार सुनाता है । ( पत्र ३८ B)
भगवान् के श्री वर्धमान, सन्मति, महावीर आदि नामों के रखे जाने का वर्णन पूर्व परम्परा के ही अनुसार है । (८) महावीर जब कुमार काल को पार कर युवावस्था से सम्पन्न हो जाते हैं तब उनके पिता विचार करते हैं
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