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30 एक भयानक भुजंग रहता है, जो अपनी दृष्टि के विष द्वारा ही पथिकों को भस्म कर देता है, अतः आप इधर से न जाकर अन्य मार्ग से जावें ।' महावीर ने उन लोगों की बात सुनकर भी उस पर कुछ ध्यान नहीं दिया और वे उसी मार्ग से चलकर एक यक्ष-मन्दिर में जाकर ध्यानारूढ़ हो गये। वहां रहने वाला सांप जब इधर-उधर घूम कर अपने स्थान को वापिस लौट रहा था, तो उसकी दृष्टि ध्यानारुढ महावीर पर ज्योंही पड़ी त्यों ही वह क्रोधित होकर फुंकार करते हुए महावीर की ओर बढ़ा और उसने महावीर के पांव में काट खाया । वहां से रक्त के स्थान पर दूध की धारा बह निकली । यह विचित्र बात देख कर पहले तो वह स्तब्ध रह गया। पर जब उसने देखा कि इन पर तो मेरे काटने का कुछ भी असर नहीं हुआ, तो उसने दो बार और भी काटा। मगर तब भी विष का कोई असर न देखकर सर्प का रोष शान्त हो गया। तब भ महावीर ने उसके पूर्व भव का नाम लेते हुए कहा- चण्डकौशिक, शान्त होओ। अपना नाम सुनते ही उसे जातिस्मरण हो गया और सदा के लिए उसने जीवों को काटना छोड़ दिया
भ. महावीर यहां से विहार करते हुए क्रमशः श्वेताम्बी नगरी पहुँचे। यहां राजा प्रदेशी ने भगवान् की अगवानी की और अत्यन्त भक्ति से उनके चरणों की वन्दना की। वहां से भगवान् ने सुरभिपुर की ओर विहार किया। आगे जाने पर उन्हें गंगा नदी मिली। उसे पार करने के लिए महावीर को नाव पर बैठना पड़ा। नाव जब नदी के मध्य में पहुँची, तब एक भयंकर तूफान आया, नाव भंवर में पड़कर चक्कर काटने लगी । यात्री प्राण-रक्षा के लिए त्राहित्राहि करने लगे । पर महावीर नाव के एक कोने में सुमेश्वत् ध्यानस्थ रहे। अन्त में भगवान् के पुण्योदय से कुछ देर बाद तूफान शान्त हो गया और नाव किनारे जा लगी। सब यात्रियों ने अपना-अपना मार्ग पकड़ा और महावीर भी नाव से उतर कर गंगा के किनारे चलते हुए धूणाक पहुँचे। मार्ग में अंकित पद चिह्नों को देखकर एक सामुद्रिकवेत्ता आश्चर्य में डूब गया और सोचने लगा कि ये पदचिह्न तो किसी चक्रवर्ती के होना चाहिए। अतः वह पद चिह्नो को देखता हुआ वहां पहुँचा, जहां पर भगवान् अशोक वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ खड़े थे । उनके सर्वाङ्ग में ही चक्रवर्ती के चिह्न देखकर वह बड़ी चिन्ता में पड़ा कि सभी राज चिह्नों से विभूषित यह पुरुष साधु बनकर जंगलों में क्यों घूम रहा है ? जब उसे किसी भद्र पुरुष से ज्ञात हुआ कि ये तो अपरिमित लक्षण वाले धर्म चक्रवर्ती भ. महावीर हैं, तब वह उनकी वन्दना कर अपने स्थान को चला गया ।
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थूणाक- सन्निवेश से विहार करते हुए भ. महावीर नालंदा पहुँचे । वर्षाकाल प्रारम्भ हो जाने से उन्होंने वहीं चातुर्मास बिताने का निश्चय किया और एक मास का उपवास अंगीकार कर ध्यान में अवस्थित हो गये । इस चातुर्मास में मंखलीपुत्र गोशाला की भगवान् से भेंट हुई और वह भी चातुर्मास बिताने के विचार से वहीं ठहर गया एक मास का उपवास पूर्ण होने पर महावीर गोचरी के लिए निकले और यहां के एक विजय सेठ के यहां उनका निरन्तर आहार हुआ। दान के प्रभाव से हुए पंच' आश्चयों को देखकर गोशाला ने सोचा-ये कोई चमत्कारी साधु प्रतीत होते हैं, अतः मैं इनका ही शिष्य बनकर इनके सात रहूँगा। गोचरी से लौटने पर उसने भगवान् से प्रार्थना की कि आप मुझे अपना शिष्य बना लेवें। किन्तु भगवान् ने कोई उत्तर नहीं दिया और पुनः एक मास के उपवास का नियम करके ध्यानारूढ़ हो गये । एक मास के बाद पारणा के लिए वे नगर में गये और आनन्द श्रावक के यहां पारणा हुई । पुनः वापिस आकर एक मास का उपवास लेकर ध्यानारूढ़ हो गये । तीसरी पारणा सुनन्द श्रावक के यहां हुई । पुनः एक मास के उपवास का नियम कर भगवान् ध्यानारुढ़ हो गये ।
कार्तिकी पूर्णिमा के दिन चौथी पारणा के लिए जाते समय गोशाला ने भगवान् से पूछा कि आज मुझे भिक्षा में क्या मिलेगा ? भगवान् ने उत्तर दिया- 'कोदों का वासा भात, खट्टी छांछ और दक्षिणा में एक खोटा रुपया' भगवान् के वचनों को मिथ्या करने के उद्देश्य से वह अनेक धनिकों के घर भिक्षा के लिए गया, किन्तु
कहीं पर भी उसे भिक्षा न मिली। अन्त में एक लुहार के यहां से वही कोदों का बासा भात, खट्टी छांछ और एक खोटा रुपया मिला। इस घटना का गोशाला के मन पर बड़ा भारी प्रभाव पड़ा । वह 'नियतिवाद' का पक्का समर्थक
१. दिव्य गंधोधक वृष्टि, पुष्प वृष्टि, सुरभि वायु संचार, देवदुन्दुभि वादन और अहो दान की ध्वनि इन पांच आश्चर्य कारी बातों को 'पंच आश्चर्य कहते हैं ।
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