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वसह गयरे सीह वरसिरि दामं ससि रवि झय च कुम्भजुगं । सर सागर" विमाणं १३ भवण रयण५ कूडग्गी ॥
गाथा के पदों पर दिये गये अंको के अनुसार तीर्थंकर की माता को दीखने वाले स्वप्नों की संख्या १६ सिद्ध हो जाती है।
चक्रवर्ती से तीर्थंकर का पद दोनों ही सम्प्रदायों में बहुत उच्च माना गया है, ऐसी स्थिति में चक्रवर्ती के गर्भागमकाल में दिखाई देने वाले १४ स्वप्नों से तीर्थंकर की माता को दीखने वाले स्वप्नों की संख्या अधिक होनी ही चाहिए। जैसे कि बलदेव की माता को दिखने वाले ४ स्वप्नों की अपेक्षा वासुदेव की माता को ७ स्वप्न दिखाई देते हैं ।
दि. मान्यतानुसार सिद्धार्थ राजा की रानी त्रिशला देवी ने ही १६ स्वप्न देखे और भ. महावीर उनके ही गर्भ में आये । छप्पन कुमारिका देवियों ने त्रिशला की ही सेवा की । इन्द्रादिक ने भी भगवान् का गर्भावतरण जानकर सिद्धार्थ और त्रिशला की ही पूजा की । इन्हीं के घर पर पन्द्रह मास तक रत्न-सुवर्णादिक की वर्षा है कि भ, महावीर ब्राह्मण-कुण्ड नामक ग्राम के कोडाल गोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की जालंघर गोत्रीया पत्नी देवानन्दा की कृत्रि में अवतरित हुए । वे जिस रात्रि को गर्भ में आये, उसी रात्रि के अन्तिम पहर में देवानन्दा ने चौदह स्वप्न देखे । उसने वे स्वप्न अपने पति से कहे । उसके पति ने स्वप्नों का फल कहा
"हे देवानुप्रिये, तुमने उदार, कल्याण-रूप, शिव-रूप मगंलमय और शोभा-युक्त स्वप्नों को देखा है। ये स्वप्र आरोग्यदायक, कल्याणकर और मंगलकारी हैं । तुम्हें लक्ष्मी का, भोग का, पुत्र का और सुख का लाभ होगा । ९ मास और ७॥ दिवस-रात्रि बीतने पर तुम पुत्र को जन्म दोगी ।"
देवानन्दा के गर्भ बढ़ने लगा और ८२ दिन तक भ. महावीर भी उसी के गर्भ में वृद्धिंगत हुए। तब अचानक इन्द्र के मन में विचार आया कि तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि शलाका पुरुष शूद्र, अधम, तुच्छ, अल्प, निर्धन, कृषण भिक्षुक या ब्राह्मण कुल में जन्म नहीं लेते, वरन् राजन्य कुल में, ज्ञात वंश में, क्षत्रिय वंश में, इक्ष्वाकु वंश में और हरिवंश में ही जन्म लेते हैं । अतः उसमे हिरणेगमेसी देव को गर्भ-परिवर्तन की आज्ञा दी और कहा कि 'तुम इसी समय भरत क्षेत्र के ब्राह्म-कुण्ड ग्राम में जाओ और वहां देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में से भावी तीर्थकर महावीर के जीव को निकाल कर क्षत्रिय-कुण्ड के राजवंशी क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ में जाकर रख दो । तथा त्रिशला के गर्भ में जो लड़की है, उसे वहां से निकाल कर देवानन्दा के गर्भ में ले जाकर रख दो । इन्द्र की आज्ञानुसार हिरणेगमेसी देव ने देवानन्दा के गर्भ से भ. महावीर को निकालकर त्रिशलादेवी के गर्भ में रख दिया और उसके गर्भ से कन्या को निकाल कर देवानन्दा के गर्भ में रख दिया । जिस रात्रि को यह गर्भापहरण किया गया और भ. महावीर त्रिशला के गर्भ में पहुँचे, उसी आसोज कृष्णा १३ की रात्रि के अन्तिम पहर में त्रिशला ने १४ स्वप्न देखे । प्रात:काल उसने जाकर अपने पति सिद्धार्त राजा से सब स्वप्न कहे । उन्होंने स्वप्न-शास्त्र के कुशल विद्वानों को बुलाकर उन स्वप्नों का फल पूछा और स्वप्न शास्त्र-वेत्ताओं ने कहा कि इन महा स्वप्नों के फल से तुम्हारे तीन लोक का स्वामी और धर्म-तीर्थ का प्रवर्तक तीर्थङ्कर पुत्र जन्म लेगा ।
इस गर्भापहरण पर अनेक प्रश्न उठते हैं, जिनका कोई समुचित समाधान प्राप्त नहीं होता है । प्रथम तो यह बात बड़ी अटपटी लगती है कि पहिले देवानन्दा ब्राह्मणी उन्हीं स्वप्नों को देखती है, और उनका फल उसे बताया जाता है, कि तेरे एक भाग्यशाली पुत्र होगा । पीछे ८२ दिन के बाद त्रिशला उन्हीं स्वप्नों को देखती है। स्वप्नशास्त्र-वेत्ता जिन स्वप्नों का फल अवश्यम्भावी और उत्तम बतलाते हैं, वह देवानन्दा को कहां प्राप्त हुआ ? दूसरे ८२ दिन तक इन्द्र कहां सोता रहा ? जो बात उसे इतने दिनों के बाद याद आई, वह गर्भावतरण के समय ही क्यों याद नहीं आई ?
तीसरे यह बात भी अटपटी लगती है कि गर्भकल्याणक कहीं अन्यत्र हो और जन्मकल्याणक कहीं अन्यत्र हो। गर्भकल्याणक के समय ऋषभदत्त ब्राह्मण और देवानन्दा ब्राह्मणी की पूजा इन्द्रादिक करें और जन्म कल्याणक के समय वे ही सिद्धार्थ और त्रिशला रानी की पूजा करें ।
* समवायांग सूत्र, भगवती सूत्र और कल्पसूत्र के आधार पर ।
-सम्पादक
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