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________________ 10 बाईसवें सर्ग में बताया गया है कि भ. महावीर ने जिस विज्ञान-सन्तुलित धर्म का जगत् के कल्याण के लिए उपदेश दिया था काल के प्रभाव से और विस्मरण आदि से उसकी जो शोचनीय दशा आज हो रही है, उस पर यहां कुछ विचार किया जाता है । भ. महावीर के पश्चात् और अन्तिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी के समय तक तो जैन धर्म की गंगा एक प्रवहा रूप से ही बहती रही । किन्तु भद्रबाहु स्वामी के समय में पड़े १२ वर्ष के महान् दुर्भिक्ष के पश्चात् वह धारा दो रूप में विभक्त हो गई । उस समय जैन श्रमण संघ में २४ हजार साधु थे । सबको भद्रबाहु ने सूचित किया कि उत्तर भारत में १२ वर्ष के दुर्भिक्ष पड़ने की संभावना है, अतः सर्व साधुओं को दक्षिण देश की ओर विहार कर देना चाहिए । उनकी घोषणा सुनते ही आधा संघ तो उनके साथ दक्षिण देश की ओर विहार कर गया । किन्तु आधा संघ श्रावकों के अनुरोध पर स्थूलभद्राचार्य के नेतृत्व में उत्तर भारत में रह गया। धीरे-धीरे दुर्भिक्ष का प्रकोप बढ़ने लगा और साधुओं को आहार मिलने में कठिनाई अनुभव होने लगी। तब श्रावकों के अनुरोध पर साधुओं ने पात्र रख कर श्रावकों के घर से आहार लाकर अपने निवास-स्थल पर जा करके खाना प्रारंभ किया । इसी के साथ ही उन्होंने वस्त्र और दण्डादिक भी आत्म-रक्षा के लिए स्वीकार कर लिए और इस प्रकार निर्ग्रन्थ साधुओं में धीरेधीरे शिथिलाचार का प्रवेश हो गया । जब १२ वर्ष के उपरान्त दुर्भिक्ष का प्रकोप शान्त हुआ और दक्षिण की ओर गये हुए मुनि जन उत्तर भारत को लौटे, तो उन्होंने बहुत प्रयत्न किया कि इधर रहे हुए साधुओं में जो शिथिलाचार आ गया है, वह दूर कर वे लोग हमारे साथ पूर्ववत् मिलकर एक सूत्र के रूप में रहें । पर यह संभव नहीं हो सका। अतः उत्तर भारत में रहे साधुजन श्वेत-वस्त्र धारण करने लगे थे, अत: वे श्वेताम्बर साधुओं के नाम से कहे जाने लगे और जो नग्न निर्ग्रन्थ वेष के ही धारक रहे, वे दिगम्बर साधुओं के नाम से पुकारे जाने लगे। यहां यह विशेष ज्ञातव्य है कि श्वे. आचाराङ्ग-सूत्र में भी साधु के लिए आचेलक्य ही परम धर्म बताया गया है और अचेलक का मुख्य अर्थ पूर्ण नग्नता ही है । श्वे. शास्त्रों में राजा उदयन, ऋषभदत्त आदि के भी नग्र मुनि होने का उल्लेख आता है । श्वे. स्थानाङ्ग सूत्र में भी साधुओं के अन्य कर्तव्यों के साथ नग्नता का विधान उपलब्ध है । भ. महावीर स्वयं नग्न रहे थे। वैदिक साहित्य 'ऋत्र संहिता' (१०११३६-२) में 'मुनयो वातरशाना:' का उल्लेख है । 'जाबालोपनिषद' सूत्र ६ में 'यथाजातरूपधरो निर्ग्रन्थों निष्परिग्रहः का उल्लेख मिलता है । महाभारत के आदिपर्व श्लो. ३२६-२७ में जैन मुनि को 'नग्न क्षपणक' कहा है । विष्णुपुराण में 'ततो दिगम्बरो मुण्डो' (तृतीयांश अ. १७-१८) कहा गया है और पद्मपुराण में भी 'दिगम्बरेण......जैन धर्मोपदेशः' (प्रथम खण्ड श्लो.१३) आदि रूप से दिगम्बर मुनियों का वर्णन किया गया है। भर्तहरि ने अपने वैराग्यशतक में जैन मुनि को 'पाणिपात्रो दिगम्बर' लिखा है । वाराहमिहिर-संहिता में जैन मुनियों को 'नग्न' और अर्हन्तदेव को 'दिग्वास लिखा। ज्योतिष ग्रन्थ गोलाध्याय में भी जैन साधुओं के नग्न रहने का उल्लेख है। मुद्राराक्षस में भी इसी प्रकार का उल्लेख पाया जाता है । १. जे अचेले परिवुर्सिए तस्स णं भिक्खुस्म णो एव........(आचारांग १५१) तं वोसेज वत्थमणयारे..............(आचारंग २१०) जस्सट्ठाए कीरइ नग्गभावो जाव तमटुं आरोहेइ । (भगवती सूत्र, शतक ९ उद्देशक ३३) ३. से जहा नामए अजोमए समणाणं णिगंथाणं नग्गभावे मुण्डभावे अण्हाणए...........अरहा समणाणं णिग्गंथाणं नग्गभावे जाव लद्धावलद्धवित्तीओ जाव पट्ठवेहित्ती । (ठाणां सूत्र, हैदराबाद संस्करण पृ. ८१३) ४. एकाकी नि:स्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः । कदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मूलनक्षमः ।। भर्तृहरि-वैराग्यशतके श्लो. ७०। नग्नान् जिनानों विदुः १९६१॥ दिग्वासस्तरुणो रुपवांश्च कार्योंऽहतां देवः ॥४५,५८॥ (वाराहमिहिर-संहिताः ६. नग्नीकृता मुण्डिताः । तत्र ४-५ (गोलाध्याय (३८-१०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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