________________
प्रथम संस्करण से प्रस्तावना
कविता का जनता के हृदय पर जैसा चमत्कारी प्रभाव पड़ता है, वैसा सामान्य वाणी का नहीं । कविता एक चित्तचमत्कारी वस्तु है जो श्रोताओं के हृदयों में एक अनिर्वचनीय आनन्द उत्पन्न करती है । साधारण मनुष्य अधिक समय तक बोलने पर भी अपने भाव को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त नहीं कर पाता । परन्तु कवि उसे अपनी सरस कविता के द्वारा 'अल्प समय में ही अपने मनोगत भाव को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त कर देता है।
और अपने भावों को सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त करने की कला हर एक मनुष्य में नहीं होती। जिसे पूर्व भव के संस्कारों से जन्म-जात प्रतिभा प्राप्त होती है और जो इस जन्म में व्याकरण, साहित्य आदि शास्त्रों का अध्ययन करके व्युत्पत्ति प्राप्त करता है, ऐसा व्यक्ति ही कविता करने में सफल होता है । यही कारण है कि विद्वानों ने कवि का लक्षण -"प्रतिभा-व्युत्पत्तिमांश्च कविः" इन शब्दों में किया है।
साहित्यदर्पण-कारने 'रसात्मक वाक्य' को काव्य कहा है। इसी का स्पष्टीकरण करते हुए अलङ्कारचिन्तामणि-कार कहते हैं कि जो वाक्य शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार से युक्त हों, नौ रसों से समन्वित हों, रीति, भाव आदि से अभिराम हों, व्यंग्य आदि के द्वारा अभिधेय के कथन करने वाले हों, दोष-रहित और गुण-समूह से संयुक्त हों, नेता या कथानायक का उत्तम चरित्र वर्णन करने वाले हों और दोनों लोकों में उपकारक हों, वे ही वाक्य काव्य कहलाने के योग्य हैं और ऐसे काव्य मय प्रबन्ध का रचयिता ही कवि कहा जाता है ।
काव्य के पठन-पाठन से न केवल जन-मन-रंजन ही होता है, अपित उससे धर्म-जिज्ञासुओं को धार्मिक, नैतिक, दार्शनिक ज्ञान का शिक्षण, कायर जनों को साहस, वीर जनों को उत्साह, तथा शोक-सन्तप्त जनों को ढांढस और धैर्य प्राप्त होता है । धर्मशास्त्र तो कड़वी औषधि के समान अविद्या रूप व्याधि का नाशक है, किन्तु काव्य आल्हाद-जनक अमृत के समान अविवेक रूप रोग का अपहारक है ।।
काव्य साहित्य मर्मज्ञ विद्वानों ने काव्य-रचना के लिए आवश्यक सामग्री का निर्देश करते हुए बतलाया है कि काव्य-कथा का नायक धीरोदात्त हो, कथा-वस्तु चामत्कारिक हो उसमें यथा स्थान षड् ऋतुओं एवं नव रसों का वर्णन किया गया हो और वह नाना अलङ्कारों से अलङ्कृत हो ।
इस भूमिका के आधार पर हम देखते हैं कि वीरोदय-कार ने भ. महावीर जैसे सर्वश्रेष्ठ महापुरुष को अपनी कथा का नायक चुना है, जिनका चरित्र उत्तरोत्तर चमत्कारी है । कवि ने यथा स्थान सर्व ऋतुओं का वर्णन किया है, तथा करुण श्रृङ्गार और शान्त रस का मुख्यता से प्रतिपादन किया है । वस्तुतः ये तीन रस ही नव रसों में श्रेष्ठ माने गये हैं।
दश सर्गों से अधिक सर्गवाले काव्य को महाकाव्य कहा जाता हैं । महाकाव्य के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक सर्ग के अन्त में कुछ पद्य विभिन्न छन्दों के हों और यथास्थान, देश, नगर, ग्राम, उद्यान, बाजार, राजा, रानी क्षेत्रादिक का ललित पद्यों में वर्णन किया गया हो । इस परिप्रेक्ष्य में 'वीरोदय' एक महाकाव्य सिद्ध होता है ।
१. वाक्यं रसात्मकं काव्यम् । (साहित्यदर्पश १,३) २. शब्दार्थालंकृतीद्धं नवरसकलित रीतिभावाभिरामं,
व्यङ् ग्याद्यर्थ विदोषं गुणगणकलितं नेतृसद्वर्णनाढयम् । लोकद्वन्द्वोपकारि स्फुटमिह तनुतात्काव्यमग्न्यं सुखार्थी नानाशास्त्रप्रवीण: कविरतुलमति: पुण्यधर्मोरुहेतुम् ॥
(अलङ्कारचिन्तामणि ९,७) ३. कटुकौषधवच्छास्त्रमविद्याव्याधिनाशनम् । आल्हाद्यमृतवत्काव्यम विवेकगदापहम् ॥
(वक्रोक्ति जीवित)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org