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वात्युच्चलत्केतुकरा जिनाङ्का- ध्वजा कणत्किङ्किणिकापदेशात् ।
आयात भो भव्यजना इहाऽऽशु स्वयं यदीच्छा सुकृतार्जने सा ॥३५॥
वायु के संचार से फड़फड़ा रहे हैं केतु रूप कर (हस्त) जिनके ऐसी जिन-मुद्रा से अङ्कित ध्वजाएं बजती हुई छोटी-छोटी घण्टियों के शब्दों के बहाने से मानों ऐसा कहती हुई प्रतीत होती हैं कि भो भव्यजनो ! यदि तुम्हारी इच्छा सुकृत (पुण्य) के उपार्जन की है, तो तुम लोग शीघ्र ही स्वयं यहां पर आओ ॥३५॥
जिनालयस्फाटिक सौधदेशे तारावतारच्छलतोऽप्यशेषे । सुपर्वभिः पुष्पगणस्य तत्रोचितोपहारा इव भान्ति रात्रौ ॥३६॥
उस कुण्डनपुर नगर के जिनालयों के स्फटिक मणियों से निर्मित अतएव स्वच्छ श्वेत वर्ण वाले समस्त सौध- प्रदेश पर अर्थात् छतों पर रात्रि के समय ताराओं के अवतार (प्रतिबिम्ब) मानों देवताओं के द्वारा किये गये पुष्प-समूह के समुचित उपहार (भेंट) से प्रतीत होते हैं ॥३६॥
भावार्थ - स्फटिक-मणि-निर्मित जिनालयों की छत के ऊपर नक्षत्रों का जो प्रतिबिम्ब पड़ता है, वह ऐसा प्रतीत होता है मानों देवताओं ने पुष्पों की वर्षा ही की है । ..
नदीनभावेन जना लसन्ति वारोचितत्वं वनिताः श्रयन्ति । समुत्तरङ्गत्वमुपैति कालः स्फुटं द्वयेषां गुणतो विशालः ॥३७॥
उस नगर के मनुष्य दीनता-रहित, समुद्र-समान गम्भीर भाव के धारक हैं और स्त्रियां भी परम सौन्दर्य की धारक एवं जल के समान निर्मल चरित्र वाली हैं । अतएव वहां के लोगों का दाम्पत्य जीवन बड़े ही आनन्द से बीतता है अर्थात् सुख में बीतता हुआ काल उन्हें प्रतीत नहीं होता ॥३७॥
नासौ नरो यो न विभाति भोगी भोगोऽपि नासौ न वृषप्रयोगी । वृषो न सोऽसख्यसमर्थितः स्यात्सख्यं च तन्नात्र कदापि न स्यात् ॥३८॥
उस कुण्डनपुर नगर में ऐसा कोई मनुष्य नहीं था, जो भोगी न हो, और वहां ऐसा कोई भोग नहीं था जो कि धर्म-संप्रयोगी अर्थात् धर्मानुकूल न हो । वहां ऐसा कोई धर्म नहीं था जो कि असख्य (शत्रुता) समर्थित अर्थात् शत्रुता पैदा करने वाला हो और ऐसी कोई मित्रता न थी, जो कि कादाचित्क हो अर्थात् स्थायी न हो ॥३८॥
निरौष्ठयकाव्येष्वपवादवत्ताऽथ हे तुवादे परमोह सत्ता ।
अपाङ्गनामश्रवणं कटाक्षे छिद्राधिकारित्वमभूद् गवाक्षे ॥३९॥
वहां निरौष्ठ्य अर्थात् ओष्ठ से न बोले जाने वाले काव्यों में ही अपवादपना था यानी पकार नहीं बोला जाता था, किन्तु अन्यत्र अपवाद नहीं था अर्थात् कहीं कोई किसी की निन्दा नहीं करता था ।
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