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________________ हररररररररररररररररररररररररररररर नव्याकृतिर्मे श्रृणु भो सुचित्त्वं कुतः पुनः सम्भवतात्कवित्वम् । वक्तव्यतोऽलंकृति दूरवृत्ते वृत्ताधिकारेष्वपि चाप्रवृत्तेः ॥२६॥ भो विद्वज्जनो, तुम मेरी बात सुनो - मुझे व्याकरण का बोध नहीं है, मैं अलङ्कारों को भी नहीं जानता और छन्दों के अधिकार में भी मेरी प्रवृत्ति नहीं है । फिर मेरे से कविता कैसे संभव हो सकती है ? श्लोक का दूसरा अर्थ यह है कि मेरी यह नवीन कृति है । मेरा कृती अर्थात् विद्वज्जनों से और वृत्त अर्थात् चारित्र धारण करने वालों से भी सम्पर्क नहीं है, फिर मेरे कवित्व क (आत्मा) का वित्व अर्थात् सम्यग्ज्ञान और कवित्व-सामर्थ्य कैसे प्रकट हो सकता है? अर्थात नहीं उत्पन्न हो सकता ॥२६॥ सुवर्णमूर्तिः कवितेयमार्या लसत्पदन्यासतयेव भार्या । चेतोऽनुगृह्णाति जनस्य चेतोऽलङ्कार-सम्भारवतीति हेतोः ॥२७॥ मेरी यह कविता आर्य कुलोत्पन्न भार्या के तुल्य है । जैसे कुलीन भार्या उत्तम वर्णरूप सौन्दर्य की मूर्ति होती है, उसी प्रकार यह कविता भी उत्तम वर्गों के द्वारा निर्मित मूर्ति वाली है । जैसे भार्या पद-निक्षेप के द्वारा शोभायमान होती है, उसी प्रकार यह कविता भी उत्तम-उत्तम पदों के न्यास वाली है । जैसे भार्या उत्तम अलङ्कारों को धारण करती है, उसी प्रकार यह कविता भी नाना प्रकार के अलङ्कारों से युक्त है । इस प्रकार यह कविता आर्या भाया के समान मनुष्य के चित्त को अनुरंजन करने वाली है ॥२७॥ तमोधुनाना च सुधाविधाना कवेः कृतिः कौमुदमादधाना । याऽऽह्लादनायात्र जगज्जनानां व्यथाकरी स्याज्जडजाय नाना ॥२८॥ कवि की यह कृति चन्द्र की चन्द्रिका के समान तम का विनाश करती है, सुधा (अमृत) का विधान करती है, पृथ्वी पर हर्ष को बढ़ाती है, जगज्जनों के हृदय को आह्लादित करती है और चन्द्रिका के समान जलजों-(कमलों) को तथा काव्य के पक्ष में जड़जनों को नाना व्यथा की करने वाली है ॥२८॥ भावार्थ - यद्यपि चन्द्र की चन्द्रिका तमो-विनाश, कुमुद-विकास और जगज्जनाह्लाद आदि करती है, फिर भी वह कमलों को पीड़ा पहुँचाती ही है, क्योंकि रात्रि में चन्द्रोदय के समय कमल संकुचित हो जाते हैं । इसी प्रकार मेरी यह कविता रूपी चन्द्रिका यद्यपि सर्व लोगों को सुख शान्ति-वर्धक होगी, मगर जड़-जनों को तो वह पीड़ा देने वाली ही होगी, क्योंकि वे कविता के मर्म को ही नहीं समझ सकते हैं। ग्रन्थकार इस प्रकार मंगल-पाठ करने के पश्चात् प्रकृत विषय का प्रतिपादन करते हैं - सार्धद्वयाब्दायुतपूर्वमद्य दिनादिहासीत्समयं प्रपद्य । भुवस्तले या खलु रूपरेखा जनोऽनुविन्देदमुतोऽथ लेखात् ॥२९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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