SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९०८ जयोदय-महाकाव्यम् [ ४३-४४ एतस्योदरं किमुतास्त्यपि तु समुद्रस्य गह्वरं यत्र सर्वमपि वृत्तान्तमवगाढमस्तीति लोकः स्तुतिपथमानीयते पूज्यस्य तथात्रापीति समवगन्तव्यं पाठकः ॥४२॥ स मङ्गलं नाम जनोऽस्य वेद समं गलं तेन दधाम्यखेवः । मुदङ्गलग्ना मनसीव चेयमुदङ्गलं नाशमुपैति मे यत् ॥४३॥ स मङ्गलमित्यादि-स सर्वोऽपि जनोऽस्य गणेशस्य नाम मङ्गलमानन्दकरं वेद ज्ञातवान्, इत्यस्मात् कारणावहमपि तेन समं समन्वितमात्मीयं गलं कण्ठं दधामि तस्य नाम रटनमहं करोमोत्यखेदः खेदर हितोऽपि भवामि । यतो मुद् हर्षपरिणतिर्मे ममाङ्गन लानास्ति यथा तथा मनसि चित्ते चेयं मुद् वर्तते। तथा चोवङ्गलं मङ्गलाभावश्च मे नाशमुपैति तावत् ॥४३॥ पोलो ! कवित्वं खलु लोकवित्वं स्विवाशुचित्वं च सदा शुचित्वम् । ददद् हृदः स्फातिभृवेषकाथाधुना परायां तव कीर्तिगाथा ॥४४॥ पोलो इत्यादि है पीलो ! परिपक्वस्वभावशालिन् । त्वं कवित्वमात्मवेवित्वं लोकवित्वं लोकाचारवेदित्वं स्विदथवा आशुचित्वं शीघ्रवेदित्वं किञ्च सदा शुचित्वं सततमेव पवित्रत्वं खलु निश्चयेन ववत् समस्ताय संसारायापि यच्छन् हदो हृदयस्थ स्फातिभृद् त्वमसि, अधुना साम्प्रतमेषा सेवेषका तव कीर्तिगाथा स्तवनविषयिणी वार्ता ताव धरातलेऽस्ति । अव शुभसंत् वादे। अर्थात्वं हे गणाधिपते ! प्रथमानुयोग-करणानुयोग-चरणानुयोग-द्रव्यानुयोगानामुपदेष्टासीति ॥४४॥ समस्त संसारकी वार्ताएँ अणुरूप ही हैं, अथवा वे अत्यन्त गम्भीर हैं, अच्छी बुरी वार्ताओंको सुनकर अपने उदरमें रख लेते हैं, कभी किसीकी निन्दा-स्तुति नहीं करते । तात्पर्य यह है कि उपर्युक्त गुणोंसे युक्त गणधर ही वन्दनीय हैं ॥४२॥ अर्थ-जिस कारण सभी लोग इन गणेशके नामको मङ्गल रूप जानते हैं, इसलिये मैं भी उनके नामके साथ स्वकीय कण्ठको प्राप्त हूँ, अर्थात् कण्ठके द्वारा उनका नाम रटता रहता हूँ और इसी कारण मैं खेदरहित हूँ। जिस प्रकार मुद्-हर्षको परिणति मेरे शरीरके साथ संलग्न है, उसी प्रकार मनके साथ भी संलग्न है। यही कारण है कि मेरा सब उदङ्गल-मङ्गलका अभाव नाशको प्राप्त हो रहा है ।।४३॥ अर्थ-हे परिपक्व स्वभावसे सुशोभित गणपते ! आत्मज्ञता, लोकज्ञता, शीघ्रविचारकता और सदाशुचिताको देने वाले आप हृदयकी विशालताको धारण करने वाले हैं। इस समय समस्त धरातलमें आपकी यही कीर्तिगाथा सर्वत्र प्रसरित है ॥४४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy