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संशोधन और आभार-प्रदर्शन जयोदय के पाठकों से निवेदन है कि इसके प्रारम्भिक आद्य निवेदन के पृ० ७ के तीसरे अनुच्छेद की प्रथम पंक्ति में 'दशवें सर्ग' के स्थान पर 'ग्यारहवें सर्ग' को सुधार करके पढ़ें । इसी पेज की अन्तिम पंक्ति में भी 'दशवें' सर्ग के स्थान पर 'ग्यारहवा' सर्ग पढ़ें। इसी प्रकार प्रकाशकीय वक्तव्य के दूसरे पृष्ठ के दूसरे अनुच्छेदकी छठवीं पंक्ति में भी 'दशवें' के स्थान पर 'ग्यारहवें' सर्ग को सुधार कर पढ़ें।
श्रीमान् पं० अमृतलालजी शास्त्री, साहित्याचार्य जो कि सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी में जैन दर्शन और साहित्य के प्राध्यापक एवं मर्मज्ञ विद्वान् हैं, उन्होंने मेरे परम स्नेह पूर्ण आग्रह को स्वीकार करके इस दीमक-भक्षित ग्यारहवें सर्ग की संस्कृत टीका, अन्वय और अर्थ तो लिखा ही है, साथ में मूल श्लोकों के आशय को खोलने के लिए, तथा ध्वन्यर्थ को प्रकट करने के लिए संस्कृत टीका में और अर्थ के साथ विशेषार्थों में अन्य ग्रन्थों के अवतरण देकर, तथा प्रत्येक पद्यका अपेक्षाकृत विस्तार-पूर्वक हिन्दी अनुवाद करके जो इस ग्यारहवें सर्ग का पुनरुद्धार कर उसके सम्पादन में अमूल्य समय देकर लगातार एक मास तक घोर परिश्रम कर हमें उपकृत किया है, उसके लिए मेरे पास धन्यवाद एवं आभार प्रकट करने के लिए कोई शब्द नहीं हैं । इस रह गई भूल के लिए मैं श्रीमान शास्त्री जी से क्षमा-याचना करता हूं।
-हीरालाल शास्त्री
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