SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना इस तरह वीर निर्वाणशब्द ४५३ के अंत में उज्जयिनी में शक राज्य हुआ । निर्वाणाब्द ४५७ के अंत में बलमित्र ( प्रसिद्ध नाम विक्रमादित्य) ने उज्जयिनी से शकों को निकालकर अपना अधिकार जमाया और इसके बाद १३ वें वर्ष के अंत में अर्थात् वीर निर्वाणाब्द ४७० के अंत में मालव संवत् प्रचलित हुआ । यही बात निम्नलिखित प्राचीन गाथा से प्रतिध्वनित होती है । "विक्कमरज्जाणंतर, तेरसवासेसु वच्छरपवित्तो । सुन्नमुणिवेयजुत्तो, विक्कमकालाओ जिणकालो ॥" ६१ नभ: सेन के राज्य के ४० वर्षों से गणना - शृंखला का छठा आँकड़ा पूरा हुआ और इसके साथ ही वीर निर्वाणाब्द ५०५ पूरे हुए । इसके बाद उज्जयिनी में पूरी एक शताब्दी तक गर्दभिल्लीय राज्यवंश की सत्ता रही । जैनाचार्यों की गणना -: -शृंखला का यह ७वाँ और अंतिम आँकड़ा था । इस शताब्दि की पूर्णता के साथ निर्वाण संवत् ६०५ तक आ पहुँचा । इसी अर्से में मालवा पर फिर शकों का आक्रमण हुआ । डेढ़ सौ वर्ष से भी अधिक समय तक भारतवर्ष की सभ्यता और शिक्षा का अनुभव करने के बाद का शकों का यह आक्रमण मालवी सेना से नहीं रोका जा सका परिणामस्वरूप गर्दभिल्ल साम्राज्य का अंत करके शकों ने मालवा पर पूर्ण अधिकार जमा लिया और इस महत्त्वपूर्ण विजय के उपलक्ष्य में उन्होंने भी एक संवत् प्रचलित किया जो आज तक शक संवत् अथवा शालिवाहन शाका के नाम से प्रचलित है ४ । ४४. इस दूसरी बार के आक्रमण के समय शकों का मुखिया कौन था, इस बात का यद्यपि पूर्ण निश्चय नहीं हुआ तो भी संभवतः सन्नप चष्टन इस लड़ाई का सूत्रधार हो सकता है । चष्टन के शक संवत् ४६ - ७२ तक के सिक्कों से ज्ञात होता है कि उसने गुजरात काठियावाड़ के उपरांत मालवा पर भी अपना अधिकार जमाया था और उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाया था, जो अंत तक इसके वंशजों की भी राजधानी रही । विशेष संभव है कि चष्टन के इस विजय के उपलक्ष्य में ही 'शक संवत्' चलाया गया हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy