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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
" इति गाथाचतुष्टयं तीर्थोद्गाराद्युक्तसम्मतितया प्रदर्शितं तीर्थोद्गारे च न दृश्यते इत्यपि विचारणीयम् । यद्यपि " तेणउअनवसएहिं " इति गाथा 'कालसप्ततिकायां' दृश्यते परं तत्र प्रक्षेपगाथानां विद्यमानत्वेन तदवचूर्णावव्याख्यातत्वेन चेयं न सूत्रकृत्कर्तृकेति संभाव्यते ।” - कल्पकिरणावली १३१ ।
आचार्य मेरुतुंग ने भी अपनी विचारश्रेणी में 'तदुक्तम्' कहकर ९९३ में चतुर्थी पर्युषणा होने के विषय में इस गाथा का प्रमाण की भाँति अवतरण दिया है ।
कालकाचार्य कथा में इस गाथा का अवतरण देते हुए लिखा है"उक्तं च प्रथमानुयोगसारोद्धारे द्वितीयोदये- तेणउअ० "
अर्थात् 'प्रथमानुयोगसारोद्धार के दूसरे उदय में 'तेणउअनवसएहिं' यह गाथा कही
है' परंतु प्रथमानुयोगसारोद्धार का इस समय कहीं भी अस्तित्व न होने से यह कहना कठिन है कि प्रथमानुयोगसारोद्धार की ही यह गाथा है या दूसरे ग्रंथ की । क्या आश्चर्य है जिनप्रभ ने जैसे इसको तित्थोगाली के नाम पर चढ़ाया वैसे ही कालकाचार्य कथालेखक ने इस पर प्रथमानुयोगसारोद्धार की मुहर लगा दी हो ? कुछ भी हो, इन भिन्न भिन्न उल्लेखों से इतना ही सिद्ध होता है कि विक्रम की तेरहवीं सदी के पहले की उक्त गाथा अवश्य है, पर यह किस मौलिक ग्रंथ की है इसका कोई निश्चय नहीं होता ।
अब हमें यह देखना है कि 'निर्वाण से ९९३ में चतुर्थी पर्युषणा स्थापित हुई ' यह गाथोक्त बात वास्तव में सत्य है या नहीं ।
हम देखते हैं कि निशीथचूर्णि आदि सब प्राचीन चूर्णियों और कथाओं में एक मत से यह बात मानी गई है कि 'प्रतिष्ठानपुर के राजा सातवाहन के अनुरोध से कालकाचार्य ने चतुर्थी के दिन पर्युषणा की ।' और जब हमने यह मान लिया कि सातवाहन के समय में ही हमारा पर्युषणा पर्व चतुर्थी को हुआ तो पीछे यह मानना असंभव है कि वह समय निर्वाण का ९९३ वाँ वर्ष होगा, क्योंकि निर्वाण का ९९३ वाँ वर्ष विक्रम का ५२३ वाँ और ई० स० का ४६६ वाँ वर्ष होगा जो सातवाहन के समय के साथ बिलकुल नहीं मिल सकता । इतिहास से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि ई० स० की तीसरी शताब्दी में ही आंध्रराज्य का अंत हो चुका था, इसलिये पर्युषणा चतुर्थी का जो गाथोक्त समय है वह बिलकुल कल्पित है । मेरा तो अनुमान है कि जब से १२वीं सदी में चतुर्थी से फिर पंचमी में पर्युषणा करने की मान्यता होने लगी थी उसी समय में चतुर्थी पर्युषणा को अर्वाचीन ठहराने के इरादे से किसी ने उक्त गाथा रच डाली है और गतानुगतिकतया पिछले समय में ग्रंथकारों ने अपने ग्रंथों में उसे उद्धृत कर लिया है । चतुर्थी पर्युषणा का समय हमारी मान्यतानुसार निर्वाण से ४५३ और ४६५ के बीच
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