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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
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राजा बने थे । इस वस्तु-स्थिति को न समझकर मेरुतुंग ने अपनी विचारश्रेणी में लिखा है कि--
__ "बलमित्रभानुमित्रौ राजानौ (६०) वर्षाणि राज्यमकार्टाम् । यौ तु कल्पचूर्णी चतुर्थीपर्वकर्तृकालकाचार्यनिर्वासको उज्जयिन्यां बलमित्र-भानुमित्रौ तावन्यावेव ॥" ।
आचार्य के उपर्युक्त लेख का सार यह है कि ६० वर्ष राज्य करनेवाले बलमित्र-भानुमित्र से चतुर्थी के दिन सांवत्सरिक पर्व करनेवाले कालकाचार्य को निर्वासन करनेवाले उज्जयिनी के बलमित्र-भानुमित्र भिन्न थे ।
मेरुतुंग सूरि के इस उल्लेख का कारण मेरे विचार से निम्नलिखित गाथा हो सकती है
"तेणउअनवसएहिं, समइक्कतेहिं वद्धमाणाओ । पज्जोसवणचउत्थी, कालगसूरीहितो ठविआ ॥"
इस गाथा में वीर निर्वाण से ९९३ में कालकाचार्य से चतुर्थी का पर्युषण पर्व स्थापित होने का कथन है । मेरुतुंग की गणना में ६० वर्ष राज्य करनेवाले बलमित्रभानुमित्र का समय निर्वाण से ३५४ से ४१३ तक था इसलिये ये राजा ९९३ में चतुर्थी को पर्युषणा करनेवाले कालकाचार्य के समकालीन नहीं हो सकते थे । इस असंगति के चक्र में पड़के आचार्य को कहना पड़ा कि 'उज्जयिनी के बलमित्र-भानुमित्र अन्य थे।'
अब हमें इस गाथा की मीमांसा करनी चाहिए कि यह गाथा है कहाँ की, और इसका कथन विश्वासयोग्य है भी या नहीं ।
आचार्य जिनप्रभ 'संदेहविषौषधि' नामक अपनी कल्पसूत्र टीका में कहते हैं कि यह गाथा 'तित्थोगाली पइन्नय' की है । परंतु वर्तमान 'तित्थोगाली पइन्नय' में यह गाथा उपलब्ध नहीं होती । हाँ, देवेंद्रसूरि शिष्य धर्मघोष सूरि कृत कालसप्तति में उक्त गाथा दृष्टिगत अवश्य होती है और वहाँ इसका गाथांक ४१ दिया हुआ है ।
इसी गाथा के संबंध में टीका करते हुए उपाध्याय धर्मसागरजी 'कल्पकिरणावली' में लिखते हैं कि 'तीर्थोद्गार में यह गाथा देखने में नहीं आती और 'कालसप्ततिका' में यद्यपि यह देखी जाती है, पर उसमें कई एक क्षेपक गाथाएँ भी मौजूद हैं, और अवचूर्णिकार ने भी इसकी व्याख्या नहीं की, इससे मूल ग्रंथकार की यह गाथा हो ऐसा संभव नहीं है ।' धर्मसागरजी का यह अभिप्राय उन्हीं के शब्दों में नीचे दिया जाता है
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