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________________ ३८ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना समय तक राज कर गया है, उसी के बनवाए हुए ये स्तूप हैं । इनमें उसने सुवर्ण गाड़ा है जिसे दूसरा कोई राजा ग्रहण नहीं कर सकता । यह सुन कल्की उन स्तूपों को खुदवाएगा और उनमें का तमाम सुवर्ण ग्रहण कर लेगा । इस द्रव्य-प्राप्ति से उसकी लालच बढ़ेगी और द्रव्यप्राप्ति की आशा से वह सारे नगर को खुदवा देगा । तब जमीन में से एक पत्थर की गौ निकलेगी जो 'लोणदेवी' कहलाएगी । लोणदेवी आम रास्ते में खड़ी रहेगी और भिक्षा निमित्त जाते आते साधुओं को मार गिरावेगी, जिससे उनके भिक्षा पात्र टूट जायेंगे, तथा हाथ पैर और शिर भी फूटेंगे और उनको नगर में चलना फिरना मुश्किल हो जायगा । तब महत्तर ( साधुओं के मुखिया) कहेंगे- श्रमणो ! यह अनागत दोष की जिसे भगवान् वर्द्धमान स्वामी ने अपने ज्ञान से पहले ही देखा था अग्र सूचना है । साधुओ ! यह गौ वास्तव में अपनी हितचिन्तिका है । भावी संकट की सूचना करती है, इस वास्ते चलिए, जल्दी हम दूसरे देशों में चले जायँ ! गौ के उपसर्ग से जिन्होंने जिन वचन सत्य होने की संभावना की वे पाटलिपुत्र को छोड़कर अन्य देश को चल गए । पर बहुतेरे नहीं भी गए । गंगाशोण के उपद्रव विषयक जिन-वचन को जिन्होंने सुना वे वहाँ से अन्य देश को चले गए और कई एक नहीं भी गए । 'भिक्षा यथेच्छ मिल रही है, फिर हमें भागने की क्या जरूरत कहते हुए कई साधु वहाँ से नहीं गए । दूर गएं भी पूर्वभविक कर्मों के तो निकट ही हैं । नियमित काल में फलनेवाले कर्मों से कौन दूर भाग सकता है ? मनुष्य समझता है, मैं भाग जाऊँ ताकि शांति प्राप्त हो, पर उसे मालूम नहीं कि उसके भी पहले कर्म वहाँ पहुँचकर उसकी राह देखते हैं। है ?' यह वह दुर्मुख और अधर्म्यमुख राजा चतुर्मुख (कल्की) साधुओं को इकट्ठा करके उनसे कर मांगेगा और न देने पर श्रमणसंघ तथा अन्य मत के साधुओं को कैद करेगा। तब जो सोना चांदी आदि परिग्रह रखनेवाले साधु होंगे वे सब 'कर' देकर छूटेंगे । कल्की उन पाखंडियों का जबरन् वेष छिनवा लेगा । Jain Education International लोभग्रस्त होकर वह साधुओं को भी तंग करेगा । तब साधुओं का मुखिया कहेगा-'हे राजन् ! हम अकिंचन हैं, हमारे पास क्या चीज है जो तुझे कर स्वरूप दी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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