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________________ ३० वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना "जं रयणि सिद्धिगओ, अरहा तित्थंकरो महावीरो । तं रयणिमवंतीए, अभिसित्तो पालओ राया ॥६२०|| पालगरण्णो सट्ठी, पुण पण्णसयं वियाणि णंदाणम् । मुरियाणं सट्ठिसयं, पणतीसा पूसमित्ताणम् (त्तस्स) ॥६२१|| बलमित्त-भाणुमित्ता, सट्ठा चत्ताय होति नहसेणे । गद्दभसयमेगं पुण, पडिवन्नो तो सगो राया ॥६२२॥ पंच य मासा पंच य, वासा छच्चेव होंति वाससया । परिनिव्वुअस्सऽरिहतो, तो उप्पन्नो(पडिवन्नो)सगो राया ॥६२३॥" अर्थात् 'जिस रात में अर्हन् महावीर तीर्थंकर निर्वाण हुए उसी रात (या दिन ?) में अवंति में पालक का राज्याभिषेक हुआ । ६० वर्ष पालक के, १५० नंदों के, १६० मौर्यों के, ३५ पुष्यमित्र "जं एयं वरनगरं, पाडलिपुत्तं तु विस्सुअं लोए । एत्थ होही गया, चउमुहो नाम नामेण ॥६५३॥" __-तित्थोगाली पइन्नय पृ० २८ इस गाथा के 'एयं' और 'एत्थ' शब्द-प्रयोगों से जाना जाता है कि लेखक ने पाटलिपुत्र में रहते हुए ही यह प्रकरण बनाया होगा । राजवंशो की समाप्ति-सूचक एक गाथा इसमें इस प्रकार है"ता एवं सगवंसो य नंदवंसो य मरुयवंसो य । सयराहेण पणट्ठा, समयं सज्झाणवंसेण ॥७०५।।" __-तित्थोगाली पृ० २३ । इसमें नंद, मौर्य और शक वंश के अंत का निर्देश है । विक्रम की चौथी सदी के पूर्वार्ध में ही एक साम्राज्य का अंत और गुप्त साम्राज्य का उदय हो चुका था। प्रकरणकार शक वंश के नाश का उल्लेख तो करते हैं, पर उसके नाशक गुप्त राजवंश के बारे में कुछ भी इशारा नहीं करते । इससे मालूम होता है कि उनके समय में गुप्तवंश तरक्की कर रहा होगा । दूसरे भी कितनेक ऐसे आंतर प्रमाण हैं जिनसे विक्रम की चौथी सदी के अंत में और पांचवीं के आदि में इस ग्रंथ की रचना होने का अनुमान किया जा सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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