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________________ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना आ डटे, पर राजा उनके पास समय पर नहीं गया । दर्शनी लोग जब तक राजा नहीं आया उस एकांत स्थान में इधर से उधर घूमते फिरते रहे, कोई कहीं चढ़ता उतरता तो कोई महलों की जालियों से जनाने में ही नजर झुकाता ।' अंत में सबको बिदा करने के बाद चाणक्य ने राजा से कहा – 'ये कैसे चंचलप्रकृति और विषयों के लोलुप हैं, जालियों से आपके अंत:पुर तक को देखना नहीं चूके। देखिए इनके रेती में पड़े हुए ये पदचिह्न ।' यह कहकर उसने उनके इधर उधर भटकने और चढ़ने उतरने के सूक्ष्म रज में पड़े हुए पदचिह्न दिखाए । इस दृश्य से चंद्रगुप्त की सब दर्शनियों पर से श्रद्धा कम हो गई । उसी प्रकार दूसरे दिन जैन साधुओं को भी उसने बुलाया । साधु समय पर आकर नियत स्थान पर बैठ गए और जब तक राजा नहीं आया उसी स्थान पर बैठे रहे। राजा ने उनसे भी धर्म सुना और उन्हें बिदा किया । पीछे से चाणक्य ने कहा-'देखिए ये कैसे शांत और जितेंद्रिय साधु हैं ? अपना स्थान और ध्यान छोड़कर इन्होंने कहीं भी पैर नहीं रखा । चंद्रगुप्त की भक्ति जैन साधुओं की और झुकी । इतना ही नहीं बल्कि वह जैन धर्म का पक्का अनुयायी हो गया ।' इससे ज्ञात होता है कि चाणक्य की प्रेरणा और जैन साधुओं के उपदेश से चंद्रगुप्त आखिर में जैन हो गया था । चंद्रगुप्त जैन था इस विषय में जैनेतर विद्वानों के मत भी देखने योग्य हैं । टामस साहब अपनी एक पुस्तक (जैनिज्म और दी अर्ली लाइफ आफ अशोक-पेज २३) में लिखते हैं कि 'चंद्रगुप्त जैन समाज का व्यक्ति था यह जैन ग्रंथकारों ने एक स्वयंसिद्ध और सर्वप्रसिद्ध बात के रूप से लिखा है, जिसके लिये कोई अनुमान प्रमाण देने की आवश्यकता ही नहीं थी । इस विषय में लेखों के प्रमाण बहुत प्राचीन और साधारणतः संदेहरहित हैं । मैगास्थनीज के कथनों से भी झलकता है कि चंद्रगुप्त ने ब्राह्मणों के सिद्धांतों के विपक्ष में श्रमणों(जैन मुनियों)के धर्मोपदेशों को अंगीकार किया था । इसके उपरांत टामस साहब यह भी सिद्ध करते हैं कि चंद्रगुप्त मौर्य के पुत्र बिंदुसार और पौत्र अशोक भी जैन धर्मावलंबी थे । इसके लिये उन्होंने मुद्राराक्षस, राजतरंगिणी तथा आइने अकबरी के प्रमाण दिए हैं । इनके अतिरिक्त डा० ल्यूमन, हार्नले, स्मिथ, मि० राइस और श्रीयुत जायसवाल भी चंद्रगुप्त को जैन धर्मावलंबी मानते हैं, लेकिन ये सभी विद्वान् चंद्रगुप्त को श्रुतकेवली भद्रबाहु का शिष्य मानते हैं, इसके साथ हम सहमत नहीं हो सकते । हमने जहाँ तक इस विषय का अन्वेषण किया है, चंद्रगुप्त के समय में भद्रबाहु का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता । चंद्रगुप्त के राज्यकाल में जब दुर्भिक्ष पड़ा उस समय पाटलिपुत्र में सुट्ठिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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