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________________ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना २७ था,२५ मौर्य राजा भी जैन धर्म के पोषक और कितनेक कट्टर जैन थे,२६ इस परिस्थिति को ध्यान में रखकर यह कहा जाय कि बौद्ध और पौराणिक गणनाओं की अपेक्षा जैन कालगणना ही इस विषय में ठीक हो सकती है तो कुछ भी अनुचित नहीं होगा । . यही हाल दीपमाला कल्पों में भी लिखा है जिसका यहाँ उल्लेख करने की जरूरत नहीं है । बौद्धों को इन नंदकारित सुवर्णस्तूपों का परिचय न होने से यही कहना उपयुक्त होगा कि पाटलिपुत्र के उक्त स्तूप जैन धर्म के स्मारक होंगे । हाथीगुंफा के कलिंगराज खारवेल के लेख के एक उल्लेख से भी नंद राजा का जैन धर्मानुयायी होना साबित होता है। खारवेल अपने राज्याभिषेक के बारहवें वर्ष के कामों का उल्लेख करता हुआ लिखता है कि 'बारहवें वर्ष में....से उत्तर देश के राजाओं को भयभीत किया, मगध के निवासियों पर धाक जमाते हुए उसने अपने हाथियों को गंगा में जलपान कराया, मगधराज बृहस्पति मित्र को अपने पैरों में गिराया और राजा नंद द्वारा ले जाई गई कलिंग की जिन मूर्ति को...और गृहरत्नों को लेकर प्रतिहारों द्वारा अंग-मगध का धन ले आया।' देखो नीचे का अवतरण "-बारसमे च वसे.....सेहि वितासयति उतरापथराजानो....मगधानं च विपुलं भयं जनेतो हथिसु गंगाय पाययति [1] मागधं च राजानं वहसतिमितं पादे वंदापयति [1] नंदराजनीतं च कालिंग-जिन-संनिवेसं गहरतनान पडिहारेहि अंगमागध-वसुं च नेयाति [1]" इस प्रकार नंद द्वारा जिन मूर्ति का ले जाना भी यही सूचित करता है कि वह जैन धर्म का अनुयायी होगा अन्यथा उसे जिन मूर्ति ले जाने का कोई प्रयोजन नहीं था । २५. प्रथम नंद का मंत्री कल्पक ब्राह्मण था, जो कट्टर जैन धर्मी था । इसके वंश में नवम नंद के मंत्री शकाल तक के सब पुरुष जैन धर्मी ही हुए । शकटल के पुत्र स्थूलभद्र, श्रीयक और यक्षा आदि सात पुत्रियों ने जैनधर्म की दीक्षा अंगीकार की थी । शकयल खुद भी परम जैन श्रावक था और इसी कारण से वह ब्राह्मणों के द्वेष का पात्र हुआ था । देखो आवश्यक चूणि परिशिष्ट पर्व आदि जैन ग्रंथ । २६. परिशिष्ट पर्व में आचार्य हेमचंद्र ने लिखा है - 'ब्राह्मण चाणक्य परम जैन श्रावक था और वह चंद्रगुप्त को भी जैन-धर्मी बनाना चाहता था । यद्यपि राजा उसके हरएक वचन को स्वीकार करता था, पर चाणक्य ने राजा को युक्तिपुरस्सर जैन धर्म में दृढ़ करने का विचार किया और जैनेतर सब दर्शन के साधुओं को राजा को धर्म सुनाने के लिये आने का आमंत्रण दिया । सब दर्शनी नियत समय के पहले ही नियत स्थान पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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