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________________ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना इससे मालूम होगा कि बौद्ध अवधियों के अनुसार अजातशत्रु के राज्याभिषेक से अशोक के राज्याभिषेक पर्यंत सिर्फ २२५ वर्ष व्यतीत हुए थे, और पुराणों की गणना अजातशत्रु के अभिषेक से ३२६ वर्ष बीतने पर अशोक का राज्याभिषेक ठहराती है । इस प्रकार १०० से भी अधिक वर्ष के अंतर के कारण ये स्मृतियाँ कितनी अव्यवस्थित है यह बात स्वयं सिद्ध हो जाती है । जैन ग्रंथों से मालूम होता है कि राजा कूणिक (अजातशत्रु) ने चंपा को अपनी राजधानी बनाया था, १८ तो अजातशत्रु जब चंपा में गया होगा, अवश्य ही अपने किसी भाई भतीजे को राजगृह में वहाँ के शासक के तौर पर रखकर गया होगा, जैसा कि उसने अपने वैमातृक भाइयों से श्रेणिक को पदच्युत करने के पहले स्वीकार किया था । १९ षट्त्रिंशत्तु समा राजा, अशोकानां च तृप्तिदः ॥ १४५॥” - ब्रह्मांडपुराण म० भा० उपो० पा० ३ अ० ७४ १० १८५ । १८. कोणिक राजगृह से चंपा में अपना राज्यकार्य क्यों ले गया इसका विस्तृत वर्णन आवश्यक वृत्ति में दिया है, उसका सारांश यह है कि - 'एक बार कोणिक ने अपनी माता से पूछा कि जितना मुझे अपने पुत्र से स्नेह है उतना और किसी को होगा ? माता ने कहा - तेरे पिता को तेरे ऊपर इतना स्नेह था कि वे तेरी सड़ी गली दुर्गंधित अँगुली को मुँह में रखकर तुझे रोने से फुसलाते थे । कोणिक को यह सुनकर बहुत पश्चात्ताप हुआ और कुल्हाड़ी लेकर पिंजरे से श्रेणिक को निकालने के लिये दौड़ा, पर श्रेणिक ने समझा कि यह मेरा वध करने को आ रहा है, इससे वह आत्मघात करके मर गया । कोणिक को इस घटना से बड़ा दुःख हुआ और वह श्रेणिक के स्मारकों को देख देखकर सदा उदासीन रहने लगा । आखिर उसने इस चिंता से मुक्त होने के लिये राजगृह को छोड़कर चंपा में जाकर निवास किया ।' आवश्यक वृत्ति के इस विषय के प्रारंभिक शब्द इस प्रकार हैं 'अण्णया तस्स (कोणियस्स) पउमावईए देवीए पुत्तो उदायितकुमारो जेमंतस्स उच्छंगे ठिओ, सो थाले मुत्तेति न चालेइ, मा दुमिज्जिहित्ति । ( जत्तिए ) मुत्तियं तत्तियं कूरं अवणेइ, मायं भणति अम्मो अण्णस्सवि कस्सवि पुत्तो एप्पिओ अत्थि ? मायाए सो भणिओ - दुरात्मन् ! तव अंगुली किमिए वमंती पिया मुहे काऊण अच्छियाइओ, इयरहा तुमं रोवंतो अच्छियाइओ ।" 44 २१ Jain Education International - आवश्यक वृत्ति० प० ६८३ । १९. श्रेणिक ( बिबसार) को कैद करने के पहले कोणिक (अजातशत्रु) ने अपने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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