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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
शिष्य निर्ग्रन्थों में दो दल हो गए हैं। यही नहीं, वे आपस में लड़ते-झगड़ते हैं, और मुँह से एक दूसरे को भला बुरा भी कहते फिरते हैं ।' .
इसी आशय का पाठ 'दीघनिकाय' के पासादिक सुत्तंत में भी है और वहाँ पर निर्ग्रन्थ किस तरह एक दूसरे का खंडन करते हैं इसका वर्णन भी दिया है ।
इन उल्लेखों के ही आधार पर डा. विसेंट स्मिथ आदि अनेक विद्वानों का कथन है कि महात्मा बुद्ध की जीवित दशा में ही महावीर का निर्वाण हो चुका था ।
___ डा० जेकोबी कहते हैं - बौद्ध लेखक जिस पावा में महावीर का काल प्राप्त होना लिखते हैं, वह स्थान महावीर की निर्वाणभूमि से भिन्न है, इसलिये इस विषय में यह उल्लेख प्रामाणिक नहीं हो सकता ।
डा० जेकोबी जिस कारण से इन उल्लेखों को गलत समझते हैं उसी कारण से मैं इन्हें ठीक समझता हूँ । बौद्धों के ये गलत उल्लेख ही बुद्ध और महावीर के निर्वाण समय के वास्तविक अंतर को प्रदर्शित करने में सहायक हो रहे हैं। क्योंकि उक्त उल्लेखों का संबंध महावीर के निर्वाण के साथ नहीं पर उस बीमारी के साथ है जो गोशालक के साथ झगड़ा होने के बाद शुरू हुई थी और छ: मास तक रही थी । महावीर की इस बीमारी का अंतिम स्वरूप बड़ा भयंकर था । लोगों को उनके बचने की आशा कम हो गई थी। जो कोई उनकी बीमारी की हालत देखता और सुनता वह गोशालक के भविष्य कथन को याद करता और कहता "सचमुच ही श्रमण भगवान् महावीर मंखलि गोशालक के तपस्तेज से व्याप्त हुए हैं, और छ: मास के भीतर ही पित्तज्वर से काल कर जायँगे ।"
८. महावीर की इस बीमारी के हाल और जनप्रवाद का भगवती में नीचे लिखा वर्णन दिया है
"तएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विउले रोगायके पाउब्भूए उज्जले जाव दुरहियासे पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवकंतीए यावि होत्था । अवियाइ लोहियवच्चाई पकरेइ। चाउवन्नं वागरेति एवं खलु समणे भगवं महावीरे गोशालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं
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