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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
मृत्यु से ही संवत् का आरंभ मानते थे ।११२ अवश्य ही विक्रम संवत्सर के विषय में मतभेद था, पर कौन मान्यता ठीक थी और कौन गलत, इस बात उसके राज्याभिषेक वर्ष से ही शुरू हुआ माना जाता है और उसका निर्देश सामान्य होता है, पर जहाँ उसका अन्य घटना के साथ संबंध होता है वहाँ बहुधा उस घटना का भी साथ ही निर्देश किया जाता है, जैसे 'वीरनिर्वाण संवत्' तथा 'विक्रममृत्यु संवत्' का । यहाँ पर 'निर्वाण' और 'मृत्यु' घटना का निर्देश किया जाता है ।
११२. विक्रम की मृत्यु से संवत्सर प्रवृत्ति माननेवाले आचार्यों में दिगंबर जैनाचार्य देवसेन सूरि का नाम खास उल्लेखनीय है । इन्होंने अपने 'दर्शनसार' नाम के ग्रंथ में जहाँ जहाँ ऐतिहासिक घटनाओं का निरूपण किया है वहाँ सर्वत्र विक्रम मृत्यु संवत् का ही उल्लेख है। पाठकों के अवलोकनार्थ हम यहाँ पर दर्शनसार की उन गाथाओं को उद्धृत करेंगे
''एग सए छत्तीसे, विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरटे वलहीए, उप्पण्णो सेवडो संघो ॥ पंचसये छव्वीसे, विक्कमण्यस्स मरणपत्तस्स । दक्खिणमहुराजादो, दाविडसंघो महामोहो ॥ सत्तसये तेवण्णे, विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । नंदयडे वरगामे, कट्ठासंघो मुणेयव्वो ॥"
पाठक गण देखेंगे कि उक्त प्रत्येक गाथा के पूर्वार्ध में विक्रम मृत्युसंवत्सर का उल्लेख है।
इसके उपरांत आचार्य अमितगति ने अपने 'सुभाषित रत्नसंदोह' में और पं० वामदेव ने 'भावसंग्रह' में विक्रममृत्युसंवत् का उल्लेख किया है, जो नीचे के पद्यों से ज्ञात होगा
"समारूढे पूतत्रिदशवसति विक्रमनृपे, सहस्रे वर्षाणां प्रभवति हि पञ्चाशदधिके । समाप्तं पञ्चम्यामवति धरणी मुञ्जनृपतौ, सिते पक्षे पौषे बुधहितमिदं शास्त्रमनघम् ॥"
-सुभाषितरत्नसंदोह । "सषट्त्रिंशे शतेऽब्दानां, मृते विक्रमराजनि । सौराष्ट्र वल्लभीपुर्यामभूत्तत्कथ्यते मया ॥"
-वामदेवकृत भावसंग्रह ।
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