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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
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के ऊपर गढ़ी हुई है । ऐसी अप्रामाणिक नूतन गाथाओं के आधार पर चिरप्रचलित व्यवस्थित गणना को अन्यथा ठहराना हम किसी तरह योग्य नहीं समझते ।
हम देखते हैं कि श्वेतांबरों की तरह दिगंबर संप्रदाय में भी जब से विक्रम संवत् का प्रचार हुआ है, कई तरह की भूलें घुसनी शुरू हो गई थीं, काई विक्रम के जन्म से संवत्सर प्रवृत्ति मानता था,११० कोई विक्रम के राज्याभिषेक से संवत्सर का प्रारंभ गिनते थे,११ और कोई कोई विक्रम की
"वीरात् ४९२ विक्रम जन्मांतर वर्ष २२, राज्यांत वर्ष ४ ।"
पट्टावली का यह लेख कितना अनिश्चित और आधुनिक है यह बताने की शायद ही जरूरत होगी ।
प्रबंध की गाथाएँ भी बिलकुल अर्वाचीन और अशुद्ध हैं, इनका रचनाकाल शायद ही विक्रम की १६ वीं या १७ वीं सदी के पहले का हो ।
पाठकगण के अवलोकनार्थ हम विक्रम प्रबंध की उन गाथाओं को नीचे अवतरित करते हैं, जिनमें विक्रम जीवन-काल को भिन्न भिन्न वर्षों में बाँटा है
"सत्तर चउसद जुत्तो(ते), ति(जि)णकालेविक्कमो हवइजम्मो । अट्ठवरस बाललीला, सोडसवासेहि(साई) भम्मए देसो(सं) । वरस पणवीसा रज्जं, कुणति मिच्छोवदेससंजुत्तो । चालीस वरस जिणवर-धम्मं पालिय सुरपहं लहियं ॥" (इन गाथाओं का तात्पर्यार्थ मूल लेख में आ गया है ।)
११०. टिप्पण नं० १०९ में उल्लिखित सरस्वती गच्छ की पट्टावली के आधुनिक उल्लेख से जाना जाता है कि शायद पट्टावलीकार के समय में किसी किसी की मान्यता विक्रम के जन्म से विक्रम संवत् मानने की होगी, पर इस विषय का कोई भी प्रामाणिक उल्लेख नहीं है।
१११. विक्रम के राज्याभिषेक से संवत्सर प्रवृत्ति मानने का दिगंबराचार्यों के किन किन ग्रंथों में विधान है इसका इस समय मेरे पास कोई खुलासा नहीं है, परंतु जहाँ तक मेरा ख्याल है, जिन जिन आचार्यों ने अपने ग्रंथों में सामान्यतया विक्रम संवत् का उल्लेख किया है वे सब राज्याभिषेक से विक्रम संवत् माननेवाले होने चाहिएँ, क्योंकि यह एक सामान्य प्रथा है कि संवत्सर यदि किसी राजा के नाम का होता है तो वह
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