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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना
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तक प्राप्त नहीं हुआ था तो वे महावीर के समकालीन धर्मप्रवर्तक कैसे हो सकते हैं ?'
डा० याकोबी और चारपेंटियर के निबंधों की ये ही मुख्य दलीलें हैं, और इन सबके संक्षिप्त उत्तर मेरे इस लेख में आ भी गए हैं, पर फिर भी स्पष्टता के विचार से इस विषय में यहाँ कुछ लिखना ठीक होगा ।
प्रथम दलील के जवाब में ज्यादा लिखना वृथा है क्योंकि राजत्वकालगणना-पद्धति के विवेचन में ही हमने लिख दिया है कि यह गणना किसी राजवंश की वंशावली या पट्टावली नहीं है, किंतु स्मृतियों की एक शृंखला है । जैन साधु किसी भी राजवंश या राजस्थान के ग्रासभोगी कीर्तिगाथक नहीं होते थे जो भाटों की तरह हमेशा वहीं रहकर उस वंश की वंशकथा लिखते रहते, किंतु अपने धार्मिक नियमों के अनुसार देश परदेश में भ्रमण करनेवाले अप्रतिबद्ध विहारी साधु थे, वे जिस समय जहाँ होते वहाँ के अधिक प्रसिद्ध राजा के राजत्वकाल को अपनी गणना में संबंधित कर लेते थे जिसका कारण मात्र यही था कि निर्वाण काल गणना में किसी तरह की भूल प्रविष्ट न हो जाय, इसलिये इस पद्धति में ऐतिहासिक संबंध ढूँढ़ना निरर्थक है ।
बलमित्र भानुमित्र और कालकाचार्य का समय परस्पर न मिलने की जो शिकायत थी वह अवश्य ही विचारणीय थी, पर अब हमारे संशोधन के बाद यह शिकायत भी दूर हो जाती है।
संवत्सरप्रवर्तक विक्रम नामक व्यक्ति के अस्तित्व-नास्तित्व की शंका१०७ भी जैनगणना में कुछ भी असर नहीं डाल सकती, क्योंकि हमारी
१०७. अधिकतर पुरातत्त्ववेत्ताओं का कथन है कि 'ई० स० से ५७ वर्ष के अंतर पर जो संवत्सर प्रचलित है उसके साथ विक्रम का वास्तविक कोई संबंध नहीं है। शिलालेख, सिक्का आदि कोई भी ऐसा प्रमाण नहीं है कि इस संवत्सर-प्रवृत्ति के समय में 'विक्रम' नामक व्यक्ति का अस्तित्व भी साबित कर सके । पहले पहल 'विक्रमादित्य' उपाधि का उल्लेख द्वितीय चंद्रगुप्त के नाम के साथ मिलता है, इसके पहले किसी का नाम या उपाधि 'विक्रमादित्य' हो ऐसा कुछ भी साधक प्रमाण नहीं है । प्रचलित संवत्सर के साथ विक्रम का नाम बहुत पीछे से लिखा जाने लगा है । ९ वीं सदी के पहले के किसी भी लेख पत्र में संवत् के साथ 'विक्रम' शब्द लिखा नहीं मिलता, इसलिये या तो इस संवत्सर प्रवर्तन के समय में विक्रम नामधारी कोई राजा ही नहीं हुआ,
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