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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
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"पण छस्सयवस्सपणमासजुदं गमियवीरणिव्वुइदोसगराजो" । तो कक्की [ति] चदुणवतिमहियसगमासं ॥१०५
अर्थात् 'वीर जिन के निर्वाण से ६०५ वर्ष और ५ मास व्यतीत होने पर शक राजा हुआ ।'
उपर्युक्त दोनों प्राचीन दिगंबराचार्यों की निर्वाण-विषयक कालगणना हमारी गणना के साथ बराबर एकरूप हो जाती है, और वर्तमान कालीन दिगंबर संप्रदाय भी इन्हीं आचार्यों के कथनानुसार शक से पहले ६०५ वर्ष
और ५ मास के अंतर पर ही वीर निर्वाण संवत मानता है, इसलिये यह कहना अनुचित नहीं होगा कि निर्वाण समय के विचार में दोनों जैन संप्रदाय प्रारंभ से लेकर आज तक एक-मत हैं, और हमारी समझ में प्रचलित निर्वाण समय की सत्यता में यह एक सबल प्रमाण गिना जा सकता है ।
निर्वाणसमय विषयक आधुनिक मतभेद
अब हम महावीर के निर्वाण-समय-संबंधी आधुनिक मतभेदों की कुछ चर्चा करके इस लेख को पूरा करेंगे ।
जब से डॉक्टर हर्मन याकोबी ने आचार्य हेमचंद्र के एक उल्लेख के आधार पर महावीर निर्वाण के प्रचलित संवत् की सत्यता में संदेह उपस्थित करके निर्वाण समय के निर्णय में अपना नया मत प्रदर्शित किया है तब से इस विषय की अधिक चर्चा और समालोचना हो रही है ।
१०५. इस गाथा में 'सगराजो' पर्यंत शक का वृत्तांत है, और उसके बाद राजा कल्कि का । दिगंबर जैनाचार्यों की मान्यता यह है कि वीर निर्वाण के बाद १००० वर्ष बीतने पर प्रथम कल्की और दूसरे हजार वर्ष की संधि में दूसरा कल्की होगा, इस प्रकार हर एक हजार हजार वर्ष की संधि में एक एक कल्की होगा । इस प्रकार २० कल्की होने के बाद २१ वाँ जलमंथन नामक सन्मार्ग का मथन करनेवाला कल्की होगा ।
प्रथम कल्की शक संवत् ३९४ वर्ष और ७ मास में होने का इस गाथा में उल्लेख है इससे यह बात सिद्ध हो चुकी कि वीरनिर्वाण और शक संवत् के बीच जो ६०५ वर्ष ५ मास का अंतर बताया जाता है वही दिगंबर जैनाचार्यों की सैद्धांतिक मान्यता है ।
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