________________
११६
वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
"धन्वन्तरसहस्रं तु क्रोशो गव्या तु तद्वयम् । स्त्री गव्यूतिश्च गव्यूतं गोरुतं गोमतं च तत् ॥ गव्यूतानि च चत्वारि योजना कोशलादिषु । गव्यूतिद्वयमेव स्याद्योजनं मगधादिषु ॥६३॥"
-वैजयंती-देशाध्याय ४० । तात्पर्य इसका यह है कि 'चार हस्त प्रमाण १ धनुर्दंड, हजार धन्वंतर (धनुर्दंड) का एक क्रोश, दो क्रोश का १ गव्यूत, ४ गव्यूत का कोशल आदि देशोंका १ योजन। मगध आदि में दो गव्यूत (४ क्रोश) का ही १ योजन होता है ।
ऊपर के उल्लेखों से यही साबित होता है कि जैनसूत्रों में क्रोश और योजनों की जो परिभाषा है वह मगध की नहीं पर दूसरे देश की है, और वह दूसरा देश और कोई नहीं पर शौरसेन (मथुरा के आस पास का प्रदेश) ही होना चाहिए, क्योंकि वहीं इन सूत्रों का पुनरुद्धार और संकलन हुआ था ।
(५) प्राचीन जैन सूत्रों की भाषा में मागधी के साथ ही शौरसेनी प्राकृत की बहुलता भी उपर्युक्त अनुमान का ही समर्थन करती है ।
(६) सूत्रों में जहाँ जहाँ वाचनाकृत पाठभेद था उन सभी स्थलों में नागार्जुन के वालभी वाचनानुगत पाठों को ही टीकाओं में पाठांतरों के रूप में लिखा है। पर कहीं भी स्कंदिलीय वाचनानुगत पाठों का पाठांतरतया उल्लेख नहीं मिलता । देखो आचारांग तथा सूत्रकृतांग टीका और कथावली के निम्नोद्धृत अवतरण"नागार्जुनीयास्तु पठंति-एवं खलु० ।"
-आचारांग टीका २४५ । "नागार्जुनीयास्तु पठंति-समणा भविस्सामो०"
___ -आचारांग टीका २५३ । "नागार्जुनीयास्तु पठंति-जे खलु।"
--आचारांग टीका २५६ । "नागार्जुनीयास्तु पठंति-पुट्ठो वा."
-आचारांग टीका ३०३ । "अत्रांतरे नागार्जुनीयास्तु पठंति-सो ऊण तयं उवट्ठियं०।"
-सूत्रकृतांग टीका ६४ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org