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वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना
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"जेसि इमो अणुओगो, पयरइ अज्जावि अड्डभरहम्मि । बहुनयरनिग्गयजसे, ते वंदे खंदिलायरिए ॥३७॥"
इस गाथा में गणिजी ने स्पष्ट स्वीकार किया है कि आजकल स्कंदिलाचार्य का अनुयोग प्रचलित है।
यदि देवद्धिजी ने नागार्जुनकृत वालभी वाचना को मुख्य मानकर उसके अनुसार सिद्धांत लिखाए होते तो 'स्कंदिलाचार्य का अनुयोग प्रचलित है' ऐसा वे कभी नहीं कहते। वालभी वाचनानुयायी दूसरे थेरावलिकारों ने अपनी थेरावलियों में अनुयोग-प्रवर्तक स्कंदिलाचार्य का नामोल्लेख तक नहीं किया वैसे ही देवद्धिगणि भी यदि नागार्जुनानुयायी होते तो स्कंदिलाचार्य के संबंध में उपर्युक्त उल्लेख कभी नहीं करते ।।
(२) पर्वोक्त ज्योतिष्ककरंडक टीका में आचार्य मलयगिरिजी भी यही कहते हैं कि अनुयोग द्वार प्रभृति वर्तमानकालीन जैन श्रुत माथुरी वाचनानुगत है ।
(३) जैन आगमों में सर्वत्र पूर्णांत मास माना गया है इससे भी यही अनुमान हो सकता है कि इन सूत्रों की संकलना पूर्व या उत्तर हिंदुस्तान में हुई होगी ।
(४) जैन सूत्रों में जो दो हजार धनुष का कोश माना गया है वह शौरसेन देश की परिभाषा है।
मगध देश की प्राचीन परिभाषा के अनुसार एक कोश एक हजार धनुष का होता था । देखो नीचे के उल्लेख"धनुस्सहस्रं मागधक्रोशः ।"
-ललितविस्तर १७०-१२ । कौटिलीय अर्थशास्त्र में एक हजार धनुष्य का गोरुत (गाउ) और 'चार' गोरुत का योजन लिखा है । (धनुस्सहस्त्रं गोरुतम् । चतुर्गोरुत योजनम् ।) कौटिल्य मगध के मौर्यराजा चंद्रगुप्त का प्रधान मंत्री था इससे इसने जो ४ हजार धनुष का योजन लिखा है वह मागध परिभाषा ही होनी चाहिए । जैन आगमों में जो २ हजार धनुष का १ कोश अथवा गव्यूत और ८ हजार धनुष का एक योजन माना है वह स्पष्ट ही शौरसेनी परिभाषा है।
वैजयंतीकोश के निम्नलिखित श्लोकों में भी मगध में ४ हजार धनुष का ही योजन होना लिखा है । देखो -
_ "चतुर्हस्तो धनुर्दण्डो धनुर्धन्वन्तरं युगम् ।"
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